कविता

हिसाब- किताब

हिसाब- किताब
मुझे क्या?
मैँ ही क्यूं करूं?
मेरा क्या जाएगा?
मुझे क्या मिलेगा?
क्या खोया, क्या पाया,
हिसाब- किताब
रिश्ते- नाते में,
प्यार- दोस्ती में,
प्रेम, नेह, दुलार में,
अपने- पराये में।
मशीनी सोच ने,
निष्ठुरता परोसी हैं,
मनमस्तिष्क के
कूड़ा- करकट जालों ने,
दूषित विचारधारा ने,
मानवता को
प्रदूषित किया हैं।
हरियाली धरा,
निर्मल जलधारा,
नीलाभ गगन,
पुलकित था मानव मन।
आज सिसक रहा हैं,
छटपटाहट, घबराहट,
भय, घुटन, उलझन,
रिश्तों में अनचाहा बंधन,
मैत्री में स्वार्थ,
आधुनिकता,
भौतिक चक्काचौंध,
रे मन, क्यों परेशान हैं?
सोचो, क्यों हैरान है?
जी ले हर पल खुशियां छितराते,
धर्म संस्कार संग सद्भाव ख़िलातें,
जीवन सुंदर हो, पावन, निर्मल तरंग,
खिल खिल जाए नवरंग, नवउमंग।

*चंचल जैन

मुलुंड,मुंबई ४०००७८