लघुकथा

शिक्षा का वरदान

रंग बिरंगे गुब्बारे। ऊँची उड़ान भरने को आतुर गुब्बारे। सुन्दर सुन्दर गुब्बारे।  राज अपलक निहार रहा था गुब्बारों को। कैसे फूल कर सुन्दर, सजीले दिखते हैं गुब्बारे। बच्चें, बड़े अपनी गाड़ियों से उतरते, अपनी पसंद के गुब्बारे खरीदते।  गुब्बारों से तरह तरह के खिलौने बनाते मां-बापू। उसका भी जी ललचाता। वह भी खूब खेलेगा इन गुब्बारों से, अपने मित्रों संग। तरह तरह के खेल। सपनों की दुनिया में खोया था वह। मां की झिड़की से जाग गया। जन्मदिन के लिए ढेरों गुब्बारे चाहिए महाशय जी को। चलो जल्दी करो। फटाफट फुलाओ । फूलाते फूलाते मुंह फूल गया।  और –और –छोटा बच्चा जिद कर रहा था। “हाँ बेटा, जितने चाहे ले लो।” काश, मुझे भी मिलते गुब्बारे। “फट” की आवाज के साथ गुब्बारा फूट गया। बच्चा आवाज से डर रोने लगा। “चलो, जितने हो गए बस हो गए। ” लाडले के रोने से परेशान पिता  पैसे थमाकर आगे बढ़ गए । ” कहाँ ध्यान था तेरा। और गुब्बारे बिक जाते। ” थप्पड़ जड़ते हुए मां ने कहा। उसका जीवन गणित छोटीसी भूल से गड़बड़ा जाता था। नन्हा आज बार बार रो रहा था। गोदी में ले, मां उसके पेट पर हाथ फेर रही थी। सहलाती उसे शांत करने का प्रयास और साथ में काम। “कुछ खाओगे बेटा?” पेट दर्द से परेशान ननकु लगातार रोए जा रहा था। “लगता हैं, सुई लगवानी ही पड़ेगी।” मां की बात सुन और जोर जोर से रोने लगा। अब तक बापू का संयम बांध टूट चुका था।  “कहा था, चाट मत खिलाओ। सुनती ही नहीं हो तुम।” और रोज की गाली गलौज। चुपचाप सुनती रही वह। अपने ही दांत,अपनी  ही जीभ। दोष किसे दे?  अभावों के साथ जीते जीते ऊब गयी हैं वह। नहीं, अब और नहीं। अपने बच्चों का संपूर्ण विकास हो, उत्थान हो, ऐसी राह ढूंढ ही लेगी वह। अपने बच्चों को वह जरूर पढ़ाएगी। पास में रहने वाली दीदी से बात करेगी। उनका सारा काम संभाल लेगी, लेकिन अपने बच्चों को शिक्षा का वरदान जरूर देगी। स्नेह और ममता से अपने बच्चों को सहलाते सुनहरे भविष्य  के सतरंगी सपनों में खो गयी वह। शिक्षा का वरदान पाकर ही जीवन सुन्दर होगा। नव उल्लास और उत्साह से गुब्बारे फूलाने लगी।

*चंचल जैन

मुलुंड,मुंबई ४०००७८