सामाजिक

बदलता वक्त

बदलाव प्रकृति का शाश्वत नियम है, जिसके परिणाम सकारात्मक/नकारात्मक होते ही हैं। सदियों सदियों से बदलाव होते आ रहे हैं। जीवन के हर हिस्से में अनवरत हो रहे बदलाव का फर्क भी दिखता है। संसार भर में प्राकृतिक, सामाजिक, आर्थिक, भौगौलिक, राजनैतिक, तकनीक, रहन सहन, विचार, व्यवहार, धरातलीय, आकाशीय, यातायात, संचार, साहित्य, कला, संस्कृति, परंपराएं आदि…आदि के साथ पारिवारिक और निजी तौर पर भी उसका असर साफ देखा, महसूस किया जाता/जा रहा है।कोई भी बदलाव सबको समभाव से प्रभावित करता हो, यह भी आवश्यक नहीं है। मगर हर किसी का प्रभावित होना अपरिहार्य है।
यदि आप अपने और अपने पिता जी, बाबा जी के समय पर ही दृष्टि डालें, तो आप खुद बखुद महसूस करेंगे इस बदलाव और उसके प्रभावों को भी।
इसी तरह देश दुनिया, समाज का हर हिस्सा किसी न किसी रुप में बदलाव की गवाही दे रहा है।
एक सामान्य उदाहरण संयुक्त परिवारों और आज के बढ़ रहे एकल परिवारों से समझ सकते हैं। तीज त्योहारों के आधुनिक होते जा रहे परिवेश ही बदलाव, घटते बढ़ते फर्क को महसूस कीजिए। और तो और अपने बचपन और आज में हुए बदलावों से भी समझ और महसूस कर सकते हैं,करते भी होंगे। खुश भी होते होंगे, तो दुःखी भी होते होंगे। यह क्रम भी अबाध गति से जारी भी रहेगा। ऐसे में इसे स्वीकार न करना चाहें तो भी आप कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। क्योंकि वर्तमान से मुंह मोड़कर आप जा भी कहाँ सकते हैं।
यह कहना अतिश्योक्ति न होगा कि समय के साथ बदलाव भी होना निश्चित है, जिसे रोक पाना किसी के भी वश में नहीं है।जरूरत है तो बदलते वक्त के साथ हमें भी उसी अनुरूप बदलकर ढलने की। क्योंकि यदि हमनें खुद को न बदलने की जिद ठान ली तो न केवल हम बहुत अकेले हो जायेंगे, पिछड़ जायेंगे और सिर्फ़ हाथ मलते रह जायेंगे।
बस! बुद्धिमानी का परिचय दीजिये, बदलते वक्त की चाल के अनुरुप खुद को बदलते रहिए और आगे बढ़ते रहिए। क्योंकि वक्त बदलते हुए ही आगे बढ़ता ही रहेगा। न वक्त रुकेगा और न ही बदलाव।
मेरे विचार में ‘वक्त वक्त के साथ यूँ ही चला जायेगा, बदलाव की नजीर छोड़ जायेगा

*सुधीर श्रीवास्तव

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