आज फिर देखा चांद
सुबह से भूखी प्यासी सी
डोल रही थी गली गली
कोई भी न था राजी देने को उसे रोटी
दम मारके चली जा रही थी
बस सिर्फ नहीं थी रोती
दुखो का पहाड़ उठाये दबी थी बोझ तले
चाहकर भी नहीं कर पाती थी चोरी
मांग के खाना था उसे खाना
किंतु न आई किसी को भी उस पर दया
क्या दुनियां से उठ चुकी हैं शर्म– ओ– हया
दुखते खाली पेट की पीड़ा से दुःखी
उम्र के जैसे चलती रही वह सुबह से शाम
आई रात तो आशा छोड़ बैठी ले के ऊपरवाले का नाम
नाम लिया तो देखा उपर शायद वह दिख जाएं
और क्या!
देखा नभ पर तो दिख गई गोल गोल रोटी
खुश हो हाथ बढ़ाया तो भी हाथ न आई रोटी
ध्यान से देखा तो था वो चांद
किंतु दिख रहा था जैसे रोटी
स्वास छोड़ कराहती सी
वह
बूढ़ी हड्डियों के दर्द से या भूख से
चली गई आगोश में नींद के
या फिर बेहोशी के
— जयश्री बिरमी