रेत के ख़्वाब थे
रेत के ख़्वाब थे और नदी से मिले ।
इस तरह से हम आप ही से मिले ।।
यूं उम्र तो काट ली हमने तन्हाई में ,
आखिरी वक़्त में जिन्दगी से मिले ।
प्यास कोई कभी भी बुझा न सका ,
कितने दरिया मेरी तिश्नगी से मिले ।
सुफियों की दुआ तो रही है यही सदा,
जलता सूरज कभी चाँदनी से मिले ।
देखना हो अगर मेरे वो महबूब को ,
कोई आकर मेरी ये बेखुदी से मिले ।
कोई दिल से न मिल पाया उसके सिवा,
वरना मिलने को हम हर किसी से मिले।
मुझमें खुद को ही ढूंढा किए उम्र भर ,
यहां लोग जितने मेरी शायरी से मिले ।
रेत के ख़्वाब थे और नदी से मिले ।
इस तरह से हम आप ही से मिले ।।
— मनोज शाह ‘मानस’