गीतिका/ग़ज़ल

रेत के ख़्वाब थे

रेत के ख़्वाब थे और नदी से मिले ।
इस तरह से  हम आप  ही से मिले ।।
यूं उम्र तो काट ली हमने तन्हाई में ,
आखिरी वक़्त में जिन्दगी से मिले ।
प्यास कोई कभी भी बुझा न सका ,
कितने दरिया मेरी तिश्नगी से मिले ।
सुफियों की दुआ तो रही है यही सदा,
जलता सूरज  कभी चाँदनी से  मिले ।
देखना हो अगर मेरे वो महबूब को ,
कोई आकर मेरी ये बेखुदी से मिले ।
कोई दिल से न मिल पाया उसके सिवा,
वरना मिलने को हम हर किसी से मिले।
मुझमें खुद को ही  ढूंढा किए उम्र भर ,
यहां लोग जितने मेरी शायरी से मिले ।
रेत के ख़्वाब थे और नदी से मिले ।
इस तरह से  हम आप ही  से मिले ।।
— मनोज शाह ‘मानस’ 

मनोज शाह 'मानस'

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