कविता

पश्चाताप की अग्नि

स्तब्ध रह गया धरा गगन

मौन हो गये जन के बोल,
निष्ठुर ईश्वर तूने खेला
क्यों ऐसा अनचाहा खेल।
माना तू करता रहता है
ऐसे निष्ठुर अनगिन खेल,
तू भी तो हैरान हुआ होगा
किया क्यों मैंनें ऐसा खेल।
निश्चय ही तेरे मन में भी
आज हुआ होगा पश्चाताप
व्यथित हृदय से सोच रहा होगा
अब न करुंगा ऐसे खेल।
पश्चाताप की अग्नि में तू
आज स्वयं में जलता होगा,
ऐसा खेल किया क्यों मैंने
खुद को धिक्कार रहा होगा।
आखिर मैंनें क्या कर डाला
तू भी यही सोचता होगा,
पश्चाताप के आँसू का प्याला
तू भी आज पी रहा होगा।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921