हास्य व्यंग्य

दृश्यान्तर

दृश्य-1
मैं शहर हूँ।मुझे नगर अथवा सिटी भी कहा जाता है।बहुत बड़ा होने पर महानगर (मेट्रोपोलिटन सिटी) कह दिया जाता है।यह सब मेरे आकार पर निर्भर करता है। कुल मिलाकर हम सबकी संस्कृति औऱ सभ्यता एक ही है।विकासशील बस्तियाँ टाउन या कस्बे बोली जाने लगती हैं। ज्यों-ज्यों मैं बड़ा होता जाता हूँ ,मैं आत्मकेंद्रित होता जाता हूँ। मेरा अपना ही अहं है। मेरे निवासी अपने काम से काम रखते हैं। बहुत कम लोग मिलेंगे ,जो दूसरे के फ़टे में अपनी टाँग अड़ाते हों। यहाँ इस काम के लिए किसी के पास अवकाश नहीं है।

एक ही मकान में रहने वाले लोग ,जो चाहें किराएदार हों अथवा अन्य; आपस में जानते तक नहीं। यदि डाकिया डाक लेकर आए औऱ किसी का नाम पता पूछे तो एक बहुत ही नपा- तुला जवाब मिलता है :’पता नहीं।’ यदि अन्य स्थान का यात्री कोई सड़क गली ,दुकान ,मकान, कार्यालय, फैक्ट्री ,कारखाने आदि का पता पूछे तो भी ,’पता नहीं’ एक सूत्र वाक्य की तरह निकल पड़ता है। यहाँ कोई किसी को देने के फेर में नहीं रहता, सब लेने के लिए लालायित हैं।दूसरे शहर में आप ऐसे जाएं ,जैसे जंगल में जा रहे हों। जहाँ मात्र सड़कें, बड़े -बड़े शो रूम , विशाल मार्केट और अट्टालिकाएं, गलियाँ (जैसे भूल भुलइयाँ ), अपार भीड़, घर जैसे पखेरूओं के नीड़, आदमी आदमी के प्रति बे – पीर, वाहनों की सघन कतारें, पीं-पीं ,पों -पों का भयानक शोर, पता नहीं कौन ईमानदार कौन चोर।कब हुई संध्या , कब हुई भोर।चमचमाती हुई तेज बत्तियाँ, झपटने को टूटती हुईं इंसान की मतियाँ।कॉन्क्रीट के घने जंगल। निरन्तर जहाँ चलते हैं दंगल।अपने काम से काम। इसलिए तो मैं शहर हुआ हूँ बदनाम। पता नहीं मेरा : ‘ध्येय वाक्य’ है।

मेरे निवासी किसी को जानने या मानने में कोई रुचि भी नहीं रखते।बस अपने रास्ते जाना और अपने रास्ते आना। दुकानदार की मंजिल घर से दूकान और दूकान से घर तक है। भले वह दुनिया को जानता हो , परंतु अपने पड़ौसी से दूर का भी सम्बंध नहीं है।ऑफिस या कारखाने जाने वाला भी उससे भी अधिक सीमित दायरे में कोल्हू के बैल की तरह चक्कर लगाने वाला लकीर का फकीर है। यदि नगर वासियों को कूप- मंडूक भी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वह अपनी कुए की परिधि में टर्र -टर्र कर जीवन बिता देता है।मोहल्ले वालों को तो तब पता लगता है ,जब वे परलोक की यात्रा पर चले जाते हैं।कि पड़ौस के कपूर साहब चल बसे। बहुत मिलनसार इंसान थे।बड़े हँसमुख थे , बड़े दिलदार थे ,बड़े धार्मिक थे ,आदि आदि।

यहाँ न गेहूँ पैदा होता है न दूध। न आलू ,गोभी ,प्याज ,मटर। पर मिलेगा सब कुछ यहीं पर। उन्हें भी यहीं से ले जाना है, जिन्हें इन सबको उपजाना है। उन सबका मुझ शहर में ही ठिकाना है। यहाँ सब के लिए सब बिराना है। जिसकी अंटी गरम है, उसे किसकी शरम है! पैसे का यही तो मर्म है। मुझ शहर का यही तो कर्म है।

शहर में खबरें हैं, अख़बार हैं, नेता हैं, सुर्खियाँ हैं ,पत्रकार हैं। राजनेताओं के सजे हुए दरबार हैं। उन्हें कौन पूंछता है ,जो सड़क पर हैं, बे-घर बार हैं। एक ओर चाँदी ही चाँदी है। उधर फ़ाक़ा करने वालों की आँधी है। जितना भी करूँ अपना मैं गुणगान। मुझे तो सारी दुनिया कहती है महान।एक नहीं कई महाकाव्य लिख जाएँ। सुबह से फिर सुबह तक कितना भी बताएँ।इसीलिए तो हम शहर कहलायें। महानगरों की कहानी तो वर्षों में नहीं कह पाएँ।आप अपने घर बैठकर इसमें सौ का गुणा कर लाएँ।

दृश्य-2
मैं गाँव हूँ।अपने निवासियों का छोटा – सा ठाँव हूँ। यहाँ प्रेम है तो जलन भी है।शांति है तो तपन भी है।आदमी यहाँ अपने में मगन भी है।गरीब को किसी की अमीरी की चुभन भी है। किसके घर में क्या हो रहा है , सब एक दूसरे की पक्की ख़बर रखते हैं। किसके यहाँ कौन आया,कब आया ,कब चला गया ;इसका पता करना हो तो पड़ौसियों से पूँछें।गाँववासियों की घ्राण शक्ति की दाद देनी पड़ेगी। किसके घर में क्या पक रहा है ,सबको खबर रहती है।

यहाँ की हर नारी पत्रकार है ,चलता -फिरता अनछपा अख़बार है। कोई पहलवान है या बीमार है, इनकी जुबाँ की लिस्ट में सब शुमार है।दूसरों के बिस्तर से लेकर बाथ रूम तक इन्होंने सूँघ लिया है।खिड़कियों के अंदर तक भरपूर झाँक लिया है।शहर के पत्रकार क्या खाकर ऐसी पत्रकारिता करेंगे ? अगर वे झाँकने लगे किसी रसोई घर की खिड़की में तो क्या वे बे – मौत मरेंगे!

घर वालों से अधिक पड़ौसियों को किसी लड़की के जवान होने की फ़िक्र सताती है।विशेषकर गाँव की महिलाएं, सासें और बहुएं इस पवित्र कार्य में विशेष रुचि लेती हैं औऱ गलियों में ,घूरे पर ,खेत में बड़ी रुचि से कहती – देखी जाती हैं, ‘फलाने की छोरी इत्ती बड़ी हो गई , अभी उसके माँ -बाप को कोई फिकर ही नहीं है। जानें कैसा जमाना आया है कि 25 -30 साल की छोरियों को घर में बैठाए पड़े हैं। सुना नहीं ! घोसियाने की एक मौड़ी दखियाने के मौड़ा के संग चली गई।हाय दैया !’ औऱ भी नमक मिर्च लगाकर चटखारे लेना गाँव की भद्र महिलाओं के लिए आम बात है।

लोग भोले भी हैं औऱ भाले भी।एक से एक निराले भी। किसी के फ़टे में टाँग अड़ाना उन्हें बहुत भाता है।विवाह, शादी, गमी आदि अवसरों पर हर आदमी अपना फ़र्ज़ निभाता है। होली के रंगों में बैर भी भूल जाता है। दीवाली का दिया मिलजुल कर जलाता है। जब किसी से हो जाती है दुश्मनी, तो सात – सात पीढ़ी तक निभाता है।हो जाए भले बरबाद, बिक जाए दो चार बीघे खेत,ढोर या बाग़ पर रहने नहीं देना दुश्मन को आबाद। शहरों का रंग भी गाँवों पर पड़ा है। इसीलिए लड़का, लडक़ी मोबाइल लिए खड़ा है।पढ़ाई जो शहर के स्कूल कॉलेज में करनी है।काजर की कोठरी में काली लीक पड़नी ही पड़नी है।

पैदा कर- कर के शहर में भेज देता है।सस्ते में बेचकर मंहगा खरीद लेता है। सड़ा टमाटर अपने लिए औऱ लाल अनकट मंडी में ढो लेता है। किसान रात- दिन एक कर देता है।पसीने की कमाई मजबूरी में उलीच सोता है। रहा बचा शहर का ले जाता नेता है।कभी चंदा ,कभी सदस्यता ,कभी कुछ और फार्मूला। पर रह जाता किसान भूला का भूला। भले नहीं जले उसका दो वक़्त का चूल्हा। फिर भी रहता है फूला ही फूला। बनावटीपन नहीं है गाँव में। पर वह भी मजा लेता है कांव – कांव में। दूसरों को नीचा दिखाने के दाँव में।भले ही फटा जूता हो फ़टी एड़ियों के पांव में।वही तो उसका टीवी है , नौटंकी है।

वोटों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेता है। जरूरत हो तो किस्सा बना देता है। रंजिश को अनायास दावत देता है। फ़टी हुई रजाई में पूरी सर्दी बिता जीता है। फ़टे हुए कुरते को बार -बार भी सीता है। सब होते हुए वह रीता है। शहरियों की बोली में वह निपट गँवार है। कामगर, किसान या कुमारी -कुमार है। शहरों का माँ-बाप सदा -सदा से लाचार है।

– डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’

 

*डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

पिता: श्री मोहर सिंह माँ: श्रीमती द्रोपदी देवी जन्मतिथि: 14 जुलाई 1952 कर्तित्व: श्रीलोकचरित मानस (व्यंग्य काव्य), बोलते आंसू (खंड काव्य), स्वाभायिनी (गजल संग्रह), नागार्जुन के उपन्यासों में आंचलिक तत्व (शोध संग्रह), ताजमहल (खंड काव्य), गजल (मनोवैज्ञानिक उपन्यास), सारी तो सारी गई (हास्य व्यंग्य काव्य), रसराज (गजल संग्रह), फिर बहे आंसू (खंड काव्य), तपस्वी बुद्ध (महाकाव्य) सम्मान/पुरुस्कार व अलंकरण: 'कादम्बिनी' में आयोजित समस्या-पूर्ति प्रतियोगिता में प्रथम पुरुस्कार (1999), सहस्राब्दी विश्व हिंदी सम्मलेन, नयी दिल्ली में 'राष्ट्रीय हिंदी सेवी सहस्राब्दी साम्मन' से अलंकृत (14 - 23 सितंबर 2000) , जैमिनी अकादमी पानीपत (हरियाणा) द्वारा पद्मश्री 'डॉ लक्ष्मीनारायण दुबे स्मृति साम्मन' से विभूषित (04 सितम्बर 2001) , यूनाइटेड राइटर्स एसोसिएशन, चेन्नई द्वारा ' यू. डब्ल्यू ए लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड' से सम्मानित (2003) जीवनी- प्रकाशन: कवि, लेखक तथा शिक्षाविद के रूप में देश-विदेश की डायरेक्ट्रीज में जीवनी प्रकाशित : - 1.2.Asia Pacific –Who’s Who (3,4), 3.4. Asian /American Who’s Who(Vol.2,3), 5.Biography Today (Vol.2), 6. Eminent Personalities of India, 7. Contemporary Who’s Who: 2002/2003. Published by The American Biographical Research Institute 5126, Bur Oak Circle, Raleigh North Carolina, U.S.A., 8. Reference India (Vol.1) , 9. Indo Asian Who’s Who(Vol.2), 10. Reference Asia (Vol.1), 11. Biography International (Vol.6). फैलोशिप: 1. Fellow of United Writers Association of India, Chennai ( FUWAI) 2. Fellow of International Biographical Research Foundation, Nagpur (FIBR) सम्प्रति: प्राचार्य (से. नि.), राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सिरसागंज (फ़िरोज़ाबाद). कवि, कथाकार, लेखक व विचारक मोबाइल: 9568481040