मिसाल उर्फ ‘लेडी स्टीफन हॉकिंग’
दुनिया में अनेक मिसालें देखने को मिलती हैं.
मानवता की मिसाल देखनी हो, तो वेलेंटिन के बारे में जानना होगा. वेलेंटिन ने बचपन में किया था नन्ही शेरनी को रेस्क्यू, अब वह मालिक को बड़े प्यार से गले लगाती है.
दानवता की मिसाल देखनी हो, तो जर्मनी चलना होगा, जहां-
डॉग के लिए हुई लड़ाई, एक महिला ने दूसरी महिला को काटा, देखते रह गए कुत्ते
वफादारी की मिसाल देखनी हो, तो एक कुत्ते के बारे में जानना होगा-
मालिक के घर में घुस रहा था कोबरा सांप, कुत्ते ने फिर जो किया उसे वफादारी कहते हैं-
ऐसे ही विकलांगों के साहस की अनेक मिसालें मिलती हैं. पद्मश्री डॉ अरुणिमा सिन्हा एवरेस्ट शिखर पर चढ़ने वाली पहली भारतीय दिव्यांग हैं.
ऐसी ही साहस के साथ सक्षमता की अनुपम मिसाल हैं राजस्थान के गांव नथवाना की दिव्यांग अनुराधा बुडानिया.
”अनुराधा के दिमाग को छोड़कर शरीर का कोई हिस्सा नहीं करता काम फिर भी 12वीं में ले आई 85% नंबर”
”दिव्यांग होने की वजह से कक्षा 8 तक मेरी पढ़ाई घर पर ही हो रही थी”. अनुराधा बताती हैं.
”मेरे हाथ-पांव और कमर भी काम करने में सक्षम नहीं हैं, इसलिए मैं अपनी किताब भी नहीं उठा पाती हूं. मेरे माता-पिता ने मेरी पढ़ाई में काफी मदद की है.” दिव्यांग होने की कोई मायूसी अनु के चेहरे पर नजर नहीं आती.
”मैंने 10वीं में भी 78.50 प्रतिशत अंक प्राप्त किए थे.” अनु के चेहरे का तेज द्रष्टव्य था.
”मैं खुशकिस्मत हूं, कि मुझे स्कूल की छात्राओं ने कभी जाहिर ही नहीं होने दिया कि मैं दिव्यांग हूं.” अनु का ओरा चमक उठा था.
”दो मई 2020 को मेरे पिता सुरेंद्र बुडानिया की मौत के बाद मां सरोज बुडानिया ही मेरा ख्याल रखती हैं.” पिता की स्मृति अनु के चेहरे पर नमूदार थी.
”मेरा सपना है कि मैं आईएएस बनकर देश की सेवा करूं.” उसके ऊंचे उठने की आकांक्षा का परचम लहरा रहा था.
”इतनी मुश्किलों के बावजूद मैंने 12वीं कक्षा में 85% अंक प्राप्त किए हैं. मेरे स्कूल ने इस उपलब्धि के लिए मुझे ‘गार्गी पुरस्कार’ से सम्मानित किया है.” अपने पूरे ओज से दीप्तिमान भास्कर की मानिंद अनु का चेहरा दीपित हो गया था.
पुरस्कार की बात पर उससे प्रश्न किया जाना अवश्यम्भावी था, कि पुरस्कार लेने के लिए वह स्टेज पर कैसे पहुंची?
”मां है ना! मां ने मुझे गोद में लेकर स्टेज पर पहुंचाया.” मां की ओर मुखातिब होकर अनु बोली.
”एसडीएम रमेश देव और पालिका अध्यक्ष सुखबीर सिंह सिद्धू ने घुटनों के बल बैठकर मुझे माला और पगड़ी पहनाकर के प्रतिष्ठित गार्गी पुरस्कार से सम्मानित किया.” उसके चेहरे की चमक ऐसी थी, मानो अभी उसे पुरस्कृत किया जा रहा हो.
मां और सहेलियों के लिए वह अनु थी, बाकी सबके लिए वह ‘लेडी स्टीफन हॉकिंग’ थी.
अप्रतिम साहस और सक्षमता की ऐसी मिसाल और कहां मिलेगी!
विशेष
‘लेडी स्टीफन हॉकिंग’ के अप्रतिम साहस और सक्षमता की ऐसी मिसाल इसी साल 2021 की है.
21 साल का एक नौजवान जब दुनिया बदलने का ख़्वाब देख रहा था तभी कुदरत ने अचानक ऐसा झटका दिया कि वो अचानक चलते-चलते लड़खड़ा गया. ये स्टीफ़न हॉकिंग की कहानी हैं जिन्हें 21 साल की उम्र में कह दिया गया था कि वो दो-तीन साल ही जी पाएंगे. साल 1963 में अचानक उन्हें पता चला कि वो मोटर न्यूरॉन बीमारी से पीड़ित हैं. कॉलेज के दिनों में उन्हें घुड़सवारी और नौका चलाने का शौक़ था लेकिन इस बीमारी ने उनका शरीर का ज़्यादातर हिस्सा लकवे की चपेट में ले लिया. साल 1964 में वो जब जेन से शादी करने की तैयारी कर रहे थे तो डॉक्टरों ने उन्हें दो या ज़्यादा से ज़्यादा तीन साल का वक़्त दिया था. ये बीमारी दिमाग और तंत्रिका के सेल में परेशानी पैदा होने की वजह से होती है. ये सेल वक़्त के साथ काम करना बंद कर देते हैं. वो ऑटोमैटिक व्हीलचेयर का इस्तेमाल करते थे और वो बोल नहीं पाते थे इसलिए कंप्यूटराइज़्ड वॉइस सिंथेसाइज़र उनके दिमाग की बात सुनकर मशीन के ज़रिए आवाज़ देते थे.