ग़ज़ल
वह मिलेगा फिर दोबारा शायद।
वक्त कर जाए ईशारा शायद।
चूमती है लहर इस उम्मीद से,
पास आएगा किनारा शायद।
आग ने उस को उबाला खूब था,
नीर बन जाए शरारा शायद।
रोज़ इक पतंग उड़ाता है बच्चा,
अड़ जाए कोई सितारा शायद।
तीलियों के साथ बच्चा बह रहा,
नद में तैर जाए बेचारा शायद।
बंद हैं ताले भिखारी सोचता,
खुल जाए मन्दिर द्वारा शायद।
वक्त की बस मेहरबानी चाहिए,
मिल जाए सबसे प्यारा शायद।
कह गया था लौट कर आऊंगा फिर,
ला गया झूठा ही लारा शायद।
दीपकों ने भेद सारा पा लिया,
फिर हवा आए दोवारा शायद।
इस तरह मुमकिन नहीं है ‘बालमा’,
बिन तेरे होवै गुज़ारा शायद।
— बलविन्दर ‘बालम’
अत्यंत सटीक व सार्थक रचना. नूतन वर्ष की हार्दिक बधाइयां और शुभकामनाएं.