लघुकथा

ठंड के बीच जीवन

अरे रधिया!सुन आज हम तेरे घर चलेंगे।
यह सुन एकपल के लिए रधिया अवाक रह गई।
मगर काहे को मालकिन।
बस यूं ही और हाँ तेरी बेटी की पढ़ाई कैसी चल रही है?
मैं कछू नहीं जानत हूँ मालकिन पर म्हारी बिटिया फटे कंबल में लपटी देर तक पढ़त है।
क्यों क्या तुम्हारे पास ओढ़ने को ढंग का कंबल रजाई नहीं है।
सुनते ही रधिया की आंखों में आँसू आ गये।मुँह से बोल न निकल सके।
ओह अब समझी। मालकिन ने ड्राइवर को बुलाया और रधिया से कहा-तुम इनके साथ जाओ और अपना सामान लाओ न लाओ बेटी को उसकी कापी किताबों के साथ घर में ताला लगाकर अभी के अभी आ जाओ। कोई बहाना नहीं।अब से तुम हमारे साथ रहोगी।बेटी की जिम्मेदारी मैं लेती हूँ। अब तुम्हें ठंड की चिंता नहीं करनी पड़ेगी।
आज से तुम भी हमारे परिवार का हिस्सा हो।अब से तुम भी इस घर की मालकिन हो। तुम्हारी बेटी हम दोनों की बेटी है।
कहते हुए मालकिन की आंखोंं में आँसू आ गये, जिसे उन्होंने रधिया और ड्राइवर से बहुत खूबसूरती से पीछे घूमकर छिपा लिया।
आश्चर्य से ड्राइवर कभी मालकिन को अंदर जाते और रधिया के बहते आँसुओं को देख रहा था।

*सुधीर श्रीवास्तव

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