ग़ज़़ल
हद से ज़्यादा बढ़ गयीं गुस्ताखियाँ।
छोड़ भी दो अब सनम नादानियाँ।
चैन अब लेने न दें बेताबियाँ।
बढ़ रहीं हैं दिन ब दिन दुश्वारियाँ।
बिन हवादिश सेलड़े हरगिज़ कभी,
सोच में आंतीं नहीं गहराईयाँ।
कुछ दवा करती नहीं है अब असर,
इस तरह की आ गयीं बीमारियाँ।
झूठ वालों का पलायन हो गया,
जब मुखर होने लगीं सच्चाइयाँ।
ख्वाहिशें बाकी नहीं कुछ रह गयीं,
अब मुझे भानें लगीं तन्हाइयाँ।
होश उनको उस घड़ी आया हमीद,
जब मुकद्दर बन गयीं बैखाखियाँ।
— हमीद कानपुरी