ग़ज़ल
सोंचते क्या हो बढ़ के वार करो ,
दिल की नफरत का तुम शिकार करो ।
सोंचना अपना औ पराया क्या ,
प्रेम है तो सभी से प्यार करो ।
ऐब दूजे के देखना फिर तुम,
पहले अपने मे तो सुधार करो ।।
पहले कीमत तो आंक लो उसकी,
फिर खुशी से ये जाँ निसार करो ।
वाण व्यंगों के फिर चलाओ खूब ,
मुझको अपनो मे तो शुमार करो।
— समीर द्विवेदी “नितान्त”