हास्य व्यंग्य

भेड़ाचार पुराण – कुर्सी-बाज़ार गर्म है!

सज गई हैं दुकानें ,बाजार गर्म है।बिकेगी उसी की सौदा, जिसका जैसा भी कर्म है।तो देवियो!सज्जनो!बहनो! औऱ भाइयो ! ; डाक्टरो! मरीजो ! दवाघरो ! और दाइयो! बाजार लग चुका है।वह दिन पर दिन गरम भी हो रहा है।दुकानदार अपनी दुकानदारी के लिए बेशरम भी हो रहा है। अपने- अपने सामान की सौ -सौ खूबियाँ गिना रहा है।असलियत पूछने पर किनकिना रहा है।

जैसा कि अपनी सौदा बेचने के लिए हर उत्पादक कम्पनी विज्ञापन करती है।कमियाँ हों भले हजार ,पर हजारों गुणगान से झोलियाँ भरती है। अब ये ग्राहक की इच्छा कि वह सौदा ले अथवा नहीं ले। बाज़ार का हर दुकानदार भी यही कर रहा है।विज्ञापनों से ग्राहक का मन संभ्रम से भर रहा है।

पर ये मत समझ लीजिए कि आज का ग्राहक विज्ञापन पर रीझकर सौदा खरीद ले। वह चार दुकान पर जाता है,दाम और वस्तु की तुलना करता है। तब कहीं जाकर सौदेबाजी का मन करता है।जिसका जितना अधिक विज्ञापन ,उतना ही फीका पकवान ।विज्ञापन का क्या भरोसा! सड़े हुए आलू का गोरी मैदा से ढँका हुआ समोसा ! खाने के बाद कोसा, तो क्या कोसा ! लगा ही दिया न खोमचे वाले ने लोचा। यही हाल आज के गरम हो रहे बाज़ार का है। आदमी का विश्वास आज हो रहा तार- तार सा है।

नए – नए रंग हैं। दुकानदारों की अपनी-अपनी तरंग है। किसी-किसी ग्राहक ने चढ़ा ली भंग है।अपन तो देखकर ही ये हाल दंग हैं। दूल्हे की बारात बने हुए अधिकांशत: मतंग हैं। उन्हें क्या कुछ दिन का गुज़ारा तो होगा।खाने के साथ – साथ पीने का भी जुगाड़ा होगा। पहनने को मिलेगा रंग – बिरंगा चोगा। भेड़ाचार के युग में भी सब भेड़ नहीं हैं।पर अधिकतर तो भेड़ ही हैं। तात्कालिक लाभ के पीछे अपना भविष्य भी दाँव पर लगाने वाले ग्राहकों की कोई कमी नहीं है। वे सस्ते विज्ञापनों पर दाँव लगा देते हैं।लेपटॉप ,मोबाइल , सस्ते बिजली ,पानी पर अपना मत ही नहीं, मति भी गँवा देते हैं।लोक- लुभावन विज्ञापन ;विज्ञापन नहीं , ठगी के तरीके हैं। ग्राहक की जेब काटकर उसे उसी के पैसे से खुश कर देने वाले फार्मूले हैं। ये तेज ग्रीष्म में उड़ने वाले बगूले हैं।

एक बार खरीदोगे, बार -बार पछताओगे।भेड़ बने हुए किसी कुएँ में पड़े पाओगे।अपनी ही अगली पीढ़ी पर गज़ब ढाओगे। जब कोई चीज गर्म होती है ,तो गर्मी पाकर बढ़ती है, फैलती है। ये बाजार ! ये दुकानदार ! सभी फैल रहे हैं और नगर-गाँव के ग्राहक पिछली दुकानदारी अब तक झेल रहे हैं। हे ग्राहको ! तुम सौदा मत बन जाओ, ऐसा न हो कि बाद में पछताओ।अपना हित-अहित स्वयं पहचानो! मेरी कही बात आज मानो या मत मानो! पर इन विज्ञापनबाजों के हाथ में अपनी सौर इतनी भी मत तानो कि तुम्हारे पैर ही बाहर चले जाएँ ?

मखमली चादरों में ढँके हुए ये माल ! रंग – बिरंगे बैनरों तले दिखलाते हुए कमाल ! बनने ही वाले हैं भविष्य का बवाल ! यही तो है हर ग्राहक के सामने सवाल। भविष्य में अपने अस्तित्व की रक्षा कैसे होगी ? कौन कर सकेगा? कौन अपना है ,कौन ठग और लुटेरा है ; ये देखना पहचानना है। आज जब सारी दुनिया बारूद के ढेर पर भौंचक्की – सी बैठी है , तब तो औऱ भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है ,कि कौन ठग है ,कौन लुटेरा। कौन दे सकता है , स्थाई औऱ मजबूत बसेरा। इसलिए बाजार की गरमी पर मत जाएँ।ठंडा करके खाएँ। अन्यथा बाद में पछताएं!

ये पोस्टर ! ये झंडियाँ!! ये हैं मात्र काष्ठ की हंडियां ! जलेंगीं और तुम्हें भी जलायेंगीं। दुकानों की रंगत पर मत मर मिटो। ये एक बार गर्माएगीं, तुम्हारी आगामी पीढ़ियाँ तुम्हें हमेशा गरियायेंगीं। गरजने वाले कब बरसते हैं! जो इनसे उम्मीद लगाए बैठे हैं ,वे सदा तरसते हैं। पता नहीं ,ये बाजार कुर्सियों का है।पाँच साल मजा मनाने वाली तुरसियों का है। इनकी तुरसी में तुम्हें कुछ भी नहीं मिलने वाला। क्यों करते हो इन नशेड़ियों के हाथों अपना मुँह काला! इनके एक हाथ में झंडा है ,दूसरे में जाला। यदि अब भी जपते रहे इनकी माला; तो पड़ ही जाने वाला है, तुम्हारे हाथ पैरों में ताला।

इन्हें तो बस कुर्सी चाहिए। चाहे जैसे भी मिले। साधन उचित हों या अनुचित ;उन्हें इससे कोई मतलब नहीं है। ये वही हैं ,जो अपने मतलब के लिए गधे को भी अपना बाप बना लेते हैं। औऱ मतलब निकल जाने के बाद मार दुलत्ती ठुकरा भी देते हैं। हे प्यारे ग्राहको! अपना भला आपको स्वयं देखना है ,सोचना है। बात मात्र पाँच साल की नहीं, पाँच युगों की है। हमारी भावी पीढ़ियों की है। इन शवों के सौदागरों से बचके रहना है। इन्हें तो कुर्सी पाकर तुम्हें भूल ही जाना है। ये वे घोड़े नहीं ,जो घास से दोस्ती कर लें! घास तो खाई ही जाने वाली है। तुम्हें घास नहीं बनना है , न इनके ग्रास का चयनप्राश बनना है।

ये तुम्हारे मालिक नहीं, स्वामी नहीं। ठगियों को ठुकराने में कोई बदनामी नहीं। अपने आत्मज्ञान को जगाना है। तब बाजार से सौदेबाजी करना है। ‘कु ‘ ‘रसी ‘ ने सदा ‘कु’ ‘रस’ ही दिया है। इस कु रस में इतने दीवाने मत हो जाओ ,जो इनके कारण अपना अस्तित्व नसाओ ! ये नहीं होंगीं ,तब भी आप होगे। ये बाजार ,ये समाज, ये राष्ट्र , ये देश तुमसे ही है, कुर्सी – बाजारों से नहीं। कुर्सियों से भी नहीं। कुपात्र को दिया गया दान भी पाप है। इसलिए सुपात्र चुनें। तब अपना भरा कटोरा किसी के झोले में डालें।

— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’

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*डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

पिता: श्री मोहर सिंह माँ: श्रीमती द्रोपदी देवी जन्मतिथि: 14 जुलाई 1952 कर्तित्व: श्रीलोकचरित मानस (व्यंग्य काव्य), बोलते आंसू (खंड काव्य), स्वाभायिनी (गजल संग्रह), नागार्जुन के उपन्यासों में आंचलिक तत्व (शोध संग्रह), ताजमहल (खंड काव्य), गजल (मनोवैज्ञानिक उपन्यास), सारी तो सारी गई (हास्य व्यंग्य काव्य), रसराज (गजल संग्रह), फिर बहे आंसू (खंड काव्य), तपस्वी बुद्ध (महाकाव्य) सम्मान/पुरुस्कार व अलंकरण: 'कादम्बिनी' में आयोजित समस्या-पूर्ति प्रतियोगिता में प्रथम पुरुस्कार (1999), सहस्राब्दी विश्व हिंदी सम्मलेन, नयी दिल्ली में 'राष्ट्रीय हिंदी सेवी सहस्राब्दी साम्मन' से अलंकृत (14 - 23 सितंबर 2000) , जैमिनी अकादमी पानीपत (हरियाणा) द्वारा पद्मश्री 'डॉ लक्ष्मीनारायण दुबे स्मृति साम्मन' से विभूषित (04 सितम्बर 2001) , यूनाइटेड राइटर्स एसोसिएशन, चेन्नई द्वारा ' यू. डब्ल्यू ए लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड' से सम्मानित (2003) जीवनी- प्रकाशन: कवि, लेखक तथा शिक्षाविद के रूप में देश-विदेश की डायरेक्ट्रीज में जीवनी प्रकाशित : - 1.2.Asia Pacific –Who’s Who (3,4), 3.4. Asian /American Who’s Who(Vol.2,3), 5.Biography Today (Vol.2), 6. Eminent Personalities of India, 7. Contemporary Who’s Who: 2002/2003. Published by The American Biographical Research Institute 5126, Bur Oak Circle, Raleigh North Carolina, U.S.A., 8. Reference India (Vol.1) , 9. Indo Asian Who’s Who(Vol.2), 10. Reference Asia (Vol.1), 11. Biography International (Vol.6). फैलोशिप: 1. Fellow of United Writers Association of India, Chennai ( FUWAI) 2. Fellow of International Biographical Research Foundation, Nagpur (FIBR) सम्प्रति: प्राचार्य (से. नि.), राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सिरसागंज (फ़िरोज़ाबाद). कवि, कथाकार, लेखक व विचारक मोबाइल: 9568481040