आलोक
अनेक महीनों की उदासी के बाद आज सुप्रसिद्ध चित्रकार आलोक का चेहरा प्रसन्नता के प्रकाश से आलोकित हो रहा था. उसके चित्रों की प्रदर्शनी लगी थी. वैसे तो सभी चित्रों की जी भर तारीफ हुई, लेकिन एक चित्र ने तो धूम मचा दी थी.
चित्र में देश के जांबाज रणबांकुरों की वीरता को चित्रांकित किया गया था. तिरंगे झंडे की आन-बान-शान को बनाए रखने के लिए जांबाज रणबांकुरे कैसे अपनी जान पर खेल जाते हैं, यह चित्र उनकी जीवंत गाथा था.
चित्र की प्रसिद्धि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक पहुंच गई थी.
“गणतंत्र दिवस के उपलक्ष में आपको श्रेष्ठ चित्रकार के रूप में सम्मानित किया जाएगा.” उसके मोबाइल पर प्रधान मंत्री के कार्यालय से सूचना आई.
प्रकाश की गति से यह समाचार चहुं ओर फैल गया. आलोक की कला के लिए अनर्गल बोलने वाले भी इस समाचार से अनभिज्ञ नहीं रहे. वे खुद को शर्मिंदा महसूस नहीं कर रहे थे, यह दीगर बात है.
सम्मान पत्र हासिल करते समय उसे दो शब्द बोलने के लिए कहा गया.
“कलाकार हो या अन्य प्रसिद्ध व्यक्ति, अक्सर कुछ-न-कुछ अनर्गल प्रलाप उसे सुनना ही पड़ता है. मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ. निंदक होते तो आंगन कुटी छवाय उनको नियरे रखता, पर निरर्थक बोलने वालों का क्या किया जाय! उनकी बात अनसुनी करने का मैंने भरसक प्रयास किया, फिर भी मेरी कला पर असर पड़ने ही वाला था, कि तभी मुझे बचपन में सुनी हुई पंचतंत्र की एक कथा याद आ गई, जिसमें पंचतंत्र की एक कथा एक संत ने सांप को मशविरा दिया था, अपनी रक्षा करने के लिए फुफकारो, लेकिन काटो मत.
बस अपने तनाव को निरस्त करने के लिए मेरे मस्तिष्क में एक विचार पनपा. मैंने अनर्गल बोलने वाले एक व्यक्ति को उसी की भाषा में जवाब दिया और फिर वह तो क्या अन्य व्यक्ति भी सतर्क हो गए. मेरे मन में वीरता का आलोक जो हो गया था. उसी दौरान “जांबाज रणबांकुरे” शीर्षक वाले चित्र का सृजन हुआ. इस चित्र का सम्मान जांबाज रणबांकुरों का सम्मान है. मैं इस सम्मान के लिए प्रशासन और आप सबका बहुत-बहुत आभारी हूं”
आलोक के मन में वीरता के इस आलोक से सारा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा.