धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

आदिनाथ ने मानव को जीना सिखाया

विविध प्राचीन ग्रन्थों विशेषकर प्राकृत आगम ग्रन्थों के अनुसार कर्मयुग के पूर्व मानव प्रकृति के रहस्यों से अपरिचित था। उससे कुलकरों ने परिचित करया। अंतिम कुलकर श्री नाभिराय थे, उनकी पत्नी सुनन्दा के गर्भ आदिनाथ का जन्म हुआ। जिन्हें ऋषभदेव, वृषभदेव या वृषभनाथ भी कहते हैं। इन्होंने सर्व प्रथम नगरीय व्यवस्था की नींव डाली, वर्ण विभाजन कर्म के आधार पर किया। जो सामाजिक संरक्षण का कार्य करते थे वे क्षत्रिय, जो व्यावसायिक कार्य करते थे वे वैश्य और जो सेवावृत्ति का कार्य करते थे वे शूद्र कहलाये। ग्रन्थों के अनुसार ब्राह्मण वर्ण की स्थापना ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत ने की थी।
ऋषभदेव ने ही अपने राज्यकाल में सामाजिक संतुलन और विचारवादी मानवसभ्यता को जन्म देने के हिसाब से छह कर्मों का उपदेश दिया। जैन मान्यतानुसार भगवान ऋषभदगव ने ही असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन षट क्रियाओं की शिक्षा दी। 1. असि- शस्त्र चलाना, 2. मसि – लंखन कार्य, 3. कृषि – खेती, 4. विद्या – पठन पाठन, 5. शिल्प – सुनार, कुम्हार, चित्रकार, कारीगरी आदि और 6. वाणिज्य – व्यवसाय। इन षट्कर्मों से कर्मभूमि व्यवस्थाओं में नई क्रांति की ओर सभ्य समाज की संरचना नये-नये आयाम खिचने लगे। और मानव को जीवन की कला में दक्षता प्राप्त होने लगी।
नैनागिर में भूगर्भ से निकली आदिनाथ जिन प्रतिमा
मध्यप्रदेश के छतरपुर जिलान्तर्गत नैनागिरि सिद्धातिशय क्षेत्र है। यहाँ उत्खनन में कई प्राचीन प्रतिमाएं व प्रस्तर प्राप्त हुए थे। उनमें आदिनाथ ऋषभदेव की पुरातत्व महत्व की लगभग 4 फीट ऊँची पाषाण की पद्मासन प्रतिमा विशेष है। इस प्रतिमा की दोनों हथेलियां खंडित हैं, प्रतिमा के दाहिने ओर के चॅवरधारी का सिर, दायीं ओर का गजराज और त्रिछत्र में से नीचे का छत्र खंडित है, दाहिनी ओर का सिंहासन का सिंह भी खंडित है। इतनी खंडित होने के उपरांत भी प्रतिमा और इसका परिकर उच्च कलात्मकता लिए हुए मनोहारी द्रष्टिगत है। इसके सिंहासन के विश्रद्धाभिमुख सिंह, उनके ऊपर चौकी, इससे लटकता हुआ पलासना, उस पर तीर्थंकर के चिह्न के रूप में बैठा हुआ वृषभ- वैल, उस आसन पर एक और गद्दी जैसा आसन तिहरे कलात्मल पुष्प अंकित हैं, उस र पद्मासनस्थ जिनेन्द्रदेव को दर्शाया गया है। सिंहासन के दोनों ओर यक्ष-यक्षी शिल्पित है।
यक्ष-यक्षी के ऊपरी स्वतंत्र स्थान पर एक-एक पद्मासनस्थ जिन प्रतिमा अंकित हैं, जो मुख्य प्रतिमा के दर्शन करने पर सामान्य तौर पर दृष्टिगत नहीं होतीं क्योंकि कुछ-कुछ खंडित भी हैं, किन्तु प्रतिमा की पूर्ण कला पर दृष्टिपात करेंगे तो ये दोनों प्रतिमाएँ भी हमें दिखेंगी। इसी तरह प्रस्तर में गजलक्ष्मी के गजराजों के पीछे कायोत्सर्ग स्थ खडगासन एक एक जिन प्रतिमा है। इन्हें देखने को भी दर्शक को किंचित् एकाग्र होना पढ़ेगा।
नीचे की लघु जिन-प्रतिमाओं के ऊपरिम भाग (उपरिम भाग कहने से हमारा तात्पर्य होता है पहले कही हुई आकृति के ऊपर नहीं बल्कि उसके ऊपर के स्थान पर स्वतंत्र रूप से अंकन) में एक-एक पशु संभवतः बैठा हुआ हाथी अंकित है। सामान्यतः इस स्थान पर गजों का अंकन नहीं मिलता, किन्तु आसन में पराक्रमपूर्णता दर्शाने के लिए सिंहों, गजों का अंकन होता है। यहा इन गजों का अंकन प्रतिमा-शास्त्रियों के लिए नया बिन्दु है।
इनके ऊपर के स्थान पर दोनों ओर चामरधारी शिल्पित हैं, चामरधारियों की कला, इनके आभूषणों में कोई न्यूनता नहीं है। वस्तुतः पूर्ण प्रतिमा में चामरधारी ही ऐसे है जिन्में शिल्पी को अपनी कला के प्रदर्शन का पूर्ण अवसर होता है, कारण कि खड़े हुए होने से इनके पूर्णांगाभूषण दर्शाने का अवसर मिलता है, साथ ही परिकर में इन्हें सर्वाधिक स्थान मिलता है। यहां भी चामरधारियों की चॅवर की कलात्मक मूठ से लेकर उनके शिरोमुकुट, कर्णावतंस, मौैिक्तक हार, भुजबंध, कलाई का कड़ा, द्विभंगासन, त्रिलड़ी युक्त कटिसूत्र, कट्यावलंबित द्वितीय हस्त, सलवटें युक्त अधोवस्त्र आदि अंकित हैं। इस प्रतिमा के अभिषेकातुर गजलक्ष्मी के गज यदि खंडित न होते तो इनमें कुछ अलग हटकर अंकन दिखाई देता, क्योंकि नैनागिरि प्रतिमा शिल्पकला अपनी विशेषता लिए हुए है। यहां जिन प्रतिमाओं पर भी गजलक्ष्मी के गजराजों का अंकन हुआ हे भले ही वे समान प्रतिमा क्यों न बनाई गई हो लेकिन गजों- खास तौर पर उनके सवार- अभिषेक मर्ताओं को अलग-अलग स्वाभाविक मुद्राओं में अंकित किया गया है।
प्रतिमा का त्रिछत्र में से ऊपर के दो छत्र स्पष्ट अवशेष हैं, त्रिछत्र के दोनों ओर उड्डीयमान माल्यधारी देव परम्परागत रूप से उत्कीर्णित हैं। त्रिछत्र के ऊपर कलश का कंगूरा, उसपर कलश पश्चात् ललितासन में बैठा हुआ ढोल वादक गनधर्व अंकित किया गया है।
मूलनायक प्रतिमाजी को देखें तो लघु उष्णीस, घुंघराले बाल, लंबित कर्ण, और स्कंधों तक केश-लटें शिल्पित हैं। प्रभावल-भामण्डल कलात्मक है, इसके चक्र के अन्दर आरे हैं और चक्र के बाहर भी आरे दर्शित हैं। वक्षस्थल पर परम्परा से हटकर बड़ा और अधिक कलात्मक श्रीवत्स चिह्न है। गौरवमयी ग्रीवा, त्रिवली युक्त उदर, सामान्य नाभि सभी मूर्तिकला के अनुरूप टंकित किये गये हैं।
इस शिल्पांकन में सिंहासन में सिंह और सिंहासन से हटकर पार्श्वों में पीछे को गज अंकित किये गये हैं, तदपि आगे मध्य में वृषभ अंकित है, केश-लटें सकंधों तक लंबित हैं इससे स्पष्ट होता है कि जैन परम्परा की चौबीस तीर्थंंकरों की अवधारणा में से यह निःसंदेह प्रथम तीर्थंकर आदि प्रभु ऋषभनाथ की प्रतिमा है।
— डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’

डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज

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