आवारा पशु
“अरे श्यामा , कहां दौड़ी चली जा रही हो।कल तो तुम बहुत मस्त हो रही थी।तुमसे चलने की ही नहीं बन रही थी। बहुत माल खाया तो बहुत भाव खा रही थी।”
“कल्लू,तुझे तो मुझसे शुरू से ही ईर्ष्या रही है। कल कोई त्यौहार था तो लोगों ने दान-पुण्य के लिए मुझे भरपूर खिलाया-पिलाया।जब घर-घर में मुझे रोटी हाथों से खिलाई जाती है और मुझे लोग प्रणाम करते हैं तो तूझे जलन होती है। तुझे तो रोटी फैंककर दी जाती है और कई मौकों पर तो लोग तुझे पीछे से लात भी मार देते हैं।”
“अरे श्यामा ज्यादा भाव मत खा।वह तो कोई त्यौहार आ जाता है तो लोग दान-पुण्य कमाने के चक्कर में मोहल्ले में इधर-उधर घुम-फिरकर तुझे ढूंढ़ लेते हैं और उस समय गोमाता का दर्जा दे देते हैं वरना तो लट्ठ ही बरसाते हैं। मुझे लगता है कि अभी भी तू लट्ठ खाकर ही भागी चली जा रही है। जबकि तूझे मालूम है कि मैं मोहल्ले में अंजान लोगों को घुसने नहीं देता हूं और रात में पूरे मोहल्ले में चौकस निगाह रखता हूं।तभी तो हर घर से मुझे रोटी मिलती है।तेरी पूछपरख तो बस तीज-त्यौहार पर ही होती है जबकि मेरी पूछपरख रोजाना होती है।”
“हां,तेरी बात से इंकार नहीं है । फिर भी हमें किसी गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए क्योंकि आजकल स्वार्थी मनुष्य ने हमें नाम तो आवारा पशु ही दे रखा है।” ठंडी सांस भरते हुए श्यामा गाय ने कहा और वह अपने रास्ते चलती बनी और कल्लू कुत्ता खामोशी से इधर उधर ताकने लगा।