दोष
टेढी-मेढी संकरी गलियों से गुजरती साँसे
अछूती रह जाती हैं
परंपरा से
किसको दोष दूँ?
मानवता का जल सूख गया
दरारें काबिज़ हैं धरती पर
बस चंद बुलबुले बाकी है
इंसानियत के
किसको दोष दूँ?
उजाला होगा कहीं
अंधेरे में बस यही आस है
अपनों के झुंड में
लगा की सब अनजान हैं
किसको दोष दूँ?
व्यस्त इंसान हर लम्हा कहे
कि अब नया कर रहा हूँ
मौला ने जो महसूस किया
मैं बस वही बयाँ कर रहा हूँ