कुहासे
एक कटु अनुभव के साथ
एक मीठी भरम के साथ
छंटते हुए कुहासे
थमती हुई सांसे…
ओस की बूंद…!
जैसे अनगिनत शून्य
बीजों से निकले हुए
हरी हरी सी…,
फिर भी मरी मरी सी
गेहूं के कलियां
ठिठुरता हुआ…,
सरसों के पीले पीले
अर्ध मुरझाए हुए फूल
सिसकती हुई…,
इनके लिए जीवनदान है
या प्रायश्चित की वरदान है…!
यह प्रकृति की नियति है
या संघर्षरत जीवन की आकृति…!!
— मनोज शाह ‘मानस’