बेहद विचलित करता है
ये सवाल अक्सर आखिर
कैसी जीवन शैली है ये
आखिर कैसे एक हंसती,
खेलती , चलती , फिरती
बोलती, चहकती ज़िन्दगी
अचानक से बस एक तस्वीर
बन कर रह जाती है
छोड़ बस अपनी यादें और छाप
जब भी कोई अपना या
परिचित चला जाता है
छोड़कर यही सवाल कौंधता
रहता है मन में
क्या है ये , क्यों है ये
एक झटका दिल का या दिमाग का ,
एक्सीडेंट या बीमारी कोई
और साथ झोड़ देता है शरीर
समा बस स्मृतियों में बन मौन तस्वीर
कैसी शैली है ये जीवन की
अजीब सी
कभी भी कैसे भी बस आ
दबोचती है मृत्यु दबे पांव
बड़ी ही खामोशी से
और सब सिमट जाता है
एक तस्वीर और उस पर
माला में
और कुछ बेसुध बिस्तर पर
पड़े लाचार करते रहते हैं
निवेदन मुक्ति को रोज़ तकते
राह नीरस आंखों से कब हों
मुक्त इस शरीर से जो
बस पड़ा है नाम भर को
न चलने फिरने उठने बैठने
खाने पीने लायक बस
चलती रुकती साँसें और
धड़कनें तरसती मुक्ति को ।।
— मीनाक्षी सुकुमारन