ग़ज़ल
रात ढलने को है ढल जाए तो अच्छा होगा।
ग़म का अँधेरा निकल जाए तो अच्छा होगा।
फिर खिलें गुलशन में सुन्दर फूल, खुशबू लाएं,
नफरतों का घास जल जाए तो अच्छा होगा।
क्या सुहानी रात है बरसात है नग़्में हैं,
आज ना जाए वो कल जाए तो अच्छा होगा।
ज़िंदगी मिलती रहे कम उम्र वालों को भी,
धूप शबनम से फिसल जाए तो अच्छा होगा।
सुबह की उल्फ़त में कलियों की जवानी छलके,
हदृय भंवरों का मचल जाए तो अच्छा होगा।
एै खुदा तेरे दबारे क्या नहीं सब कुछ है,
अगर सूनी शाख फल जाए तो अच्छा होगा।
नांव ‘बालम’ की किनारे लगने वाली ही है,
दुखद आंधी कुछ देर टल जाए तो अच्छा होगा।
— बलविन्द्र ‘बालम’