गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

दोस्ती में बात कोई चल गई।
रात सारी आंसूयों में ढल गई।
आज तक मालूम नहीं हम हैं कहां?
याद उसकी क्या घड़ी दो पल गई।
गगन में कोई सितारा ना मिला,
ज़िंदगी की रात एैसे ढल गई।
कह गई अब मैं न आऊंगी कभी,
रूठ कर हमसे हवा जो कल गई।
इस तरह हम को मिली है ज़िंदगी,
तरस खा कर मौत जैसे टल गई।
वह तो अपनी ज़िद की धुन का पक्का है,
वल गया ना, पर यह रस्सी जल गई।
कौन आया ज़िंदगी के चमन में,
शाख पतझड़ में भी ‘बालम’ फल गई।

— बलविन्द्र ‘बालम’

बलविन्दर ‘बालम’

ओंकार नगर, गुरदासपुर (पंजाब) मो. 98156 25409