ग़ज़ल
अंधेरे में क्या-क्या होता गुलशन के पिछवाड़े में।
ऊँची-ऊँची कोई रोता गुलशन के पिछवाड़े में।
सारी बस्ती राख बना कर नफरत की चिंगारी से,
इक दानव मस्ती में सोता गुलशन के पिछवाड़े में।
घर के फर्ज़ों से वह भागा साधू बनकर रहता है,
केवल अपना बोझ है ढोता गुलशन के पिछवाड़े में।
कौन हक़ीक़त को पहचाने नाकाब पहन कर माली,
फूल नहीं वह कांटे बोता गुलशन के पिछवाड़े में।
याद किसी की आ जाती है जब तितली का इक जोड़ा,
खुशबूओं में लाता गोता गुलशन के पिछवाड़े में।
सुन्दर घर के आंगन में दादा-दादी खुश होते हैं,
जब पैरों पर चलता पोता गुलशन के पिछवाड़े में।
तनहाई की अंगड़ाई में पतझड़ की शहनाई है,
कोई अपने जख़्म पिरोता गुलशन के पिछवाड़े में।
‘बालम’डाली-डाली पर फूलों की कविताएं कहता,
मौसम बनता एक श्रोता गुलशन के पिछवाड़े में।
— बलविन्द्र ‘बालम’