प्रेमगीत
जीवन में वरदान प्रेम है,है उजली इक आशा !
अंतर्मन में नेह समाया,नही देह की भाषा !!
लिये समर्पण,त्याग औ’ निष्ठा,
भाव सुहाने प्रमुदित हैं
प्रेम को जिसने पूजा,समझा,
वह तो हर पल हर्षित है
दमकेगा फिर से नव सूरज,होगा दूर कुहासा !
अंतर्मन में नेह समाया,नहीं देह की भाषा !!
राधा-श्याम मिले जीवन में,
याद सदा शीरी-फरहाद
ढाई आखर महक रहा जब,
तब लब पर ना हो फरियाद
नये दौर ने दूषित होकर,बदली क्यों परिभाषा !
अंतर्मन में नेह समाया,नहीं देह की भाषा !!
अंतस का सौंदर्य प्रस्फुटित,
बाह्रय रूप बेमानी है
प्रीति को जिसने ईश्वर माना,
उसकी सदा जवानी है
उर सबके होंगे फिर उजले,यही आज प्रत्याशा ।
अंतर्मन में नेह समाया ,नहीं देह की भाषा ।।
— प्रो.(डॉ) शरद नारायण खरे