ग़ज़ल
ख़ुदग़र्जी रिश्तों की मतलब की निकली
कैसी समझी थी दुनिया कैसी निकली
धोखेबाजी निकली सबकी फ़ितरत में
प्यार मुहब्बत की दुनिया नकली निकली
सबके चहरों पर निकले अनगिन चहरे
किरदारों में बेहद ऐयारी निकली
वक्त पड़े अपनों का अपनापन तो क्या
उल्फ़त वालों की उल्फ़त झूठी निकली
बिल्डिंग ध्वस्त हुई हल्की सी कम्पन में
दीवारों की नींव बहुत कच्ची निकली
जिस घर से उम्मीदें थी उम्मीदों को
उस घर से उम्मीदों की अर्थी निकली
बंसल क्यूँ हारा बातें की जितनों से
सबके मुँह से उतनी बात नयी निकली
— सतीश बंसल