विकास बनाम पर्यावरण
दुनियां में विकास और पर्यावरण में संतुलन अति आवश्यक हैं।किंतु विकास के लिए पर्यावरण के महत्व को अनदेखा किया जा रहा हैं।चाहे वह कारखाने हो,या आवासी विस्तार, दुनिया पर जलवायु पर खतरा मंडरा रहा हैं।पर्यावरण का रक्षण नही करेंगे तो बहुत सारी कुदरती आपदायें दुनियां में विनाश बरपाएगी।अभी भी बहुत सारी आपदायें के बारे में समाचार मध्यम में पढ़ने और सुनने को मिल रहें हैं,कही बवंडर,तूफान और गर्मी के मौसम में तापमान में वृद्धि और सर्दियों में भी सर्दी का काम होना ही इसका प्रमाण हैं। कहीं नदियां सूख रही हैं और कही अतिवृष्टि हो भूस्खलन आदि का होना,बढ़ आने से जो संपत्ति और जीव हानि होती हैं ये भी प्राकृतिक असंतुलन की ही वजह से हैं।ये असंतुलन की वजह से ही दुनियां में आर्थिक विकास तो होता ही हैं किंतु कुदरत हमसे रूठ जाती हैं और नाराज कुदरत का प्रकोप हम बहुत बार देख चुके हैं।इसका एक उदाहरण मध्यप्रदेश हैं। मध्यप्रदेश के बक्सवाहा जंगल जो ३८२ हेक्टर का हैं। वहां पर जमीन में हीरों का खजाना हैं इसलिए वहां जंगल को खत्म कर खदान कर हीरों को निकाल ने की योजना का विरोध २००२ से हो रहा हैं।प्रकृतिवादी लोग और संस्थाएं जंगल की सुरक्षा के लिए अभियान चला रहे हैं। वहां के लोग प्राकृतिक तरीके से जीवन व्यतीत कर रहे हैं।जंगल इतना बड़ा हैं कि किस्से कहानियों में ही सुना जाएं उतना। ऑस्ट्रेलिया की रियो टिंटो माइनिंग कंपनी ने मध्यप्रदेश के बक्सवाहा जंगल की भूमि में हीरों की खोज का प्रोजेक्ट मिला ।कंपनी के प्लांट ने २०१६ तक वहां काम किया किंतु वहां के लोगों और पर्यावरण वादियों के विरोध की वजह से रियो टिंटो प्रोजेक्ट छोड़ चली गई।नया कॉन्ट्रैक्ट आदित्य बिरला की एस्सेल माइनिंग कंपनी को २०१९ में मिला। यहां बीड़ी के पत्ते ,महुआ और आंवले,विभिन्न जड़ी बूटियां आदि वन उत्पाद से लोगों का गुजारा होता हैं,और साथ में पर्यावरण का रक्षण भी होता हैं।लोग जंगल के भरोसे में ही जिंदगी बसर करते हैं।लोग भी डरे हुए हैं कि आगर जंगल कट गए तो वह लोग कैसे गुजारा करेंगे? उनके पास ओर कोई काम नहीं हैं,नहीं खेती और न हीं कोई रोजगार।हजारों जानवरों,पक्षियों के साथ साथ यहां के लोग भी विस्थापित होंगे।अगर विस्थापन हुआ तो मनुष्य तो शायद अपनी अनुकूलन शक्ति से बच भी जाएं लेकिन पशु पक्षियों का तो विनाश होना तय हैं। प्रशासन का दावा हैं कि प्रस्तावित जंगल बिगड़े हुए जंगल हैं,वह जंगल की जमीन जरूर हैं किंतु वन बिगड़े हुए हैं।दो लाख पेड़ काटने के बाद ही माइनिंग हो पाएगी।माइनिंग के लिए रोजाना लाखों लीटर पानी चाहिए।अगर आप कटे हुए पेड़ों के बदले और पेड़ लगाएंगे उनके लिए भी पानी चाहिए।वैसे भी पानी के मामले में ये जगह सेमी क्रिटिकल घोषित किया गया हैं।यहां की१ करोड़ ६० लाख लीटर पानी इस प्रोजेक्ट में ही चाहिए।जिसके लिए गेल नदी को डायवर्ट कर बांध बनाया जाएगा जिससे नदी का बहाव बंद होने से जानवरों और वह के निवासियों को पानी मिलना बंद हो जायेगा।२लाख १५ हजार ८७५ पेड़ काटे जायेंगे जिसेसे वहां के छोटी छोटी नदियां भी सुख जायेगी।जिससे वन्य संपतियों का नष्ट होने का खतरा हैं।अगर ये जंगल खत्म हुआ तो साथ में वहां की गुफाओं में २५००० वर्ष पुरानी चित्रकला के अवशेष भी खत्म हो जाएंगे,इतिहासिक धरोहर भी खत्म हो जाएगी।
पुरातत्व विभाग का ऐसा मानना है कि यहां हर तस्वीर कह रही हैं कि हजारों साल पहले भी यहां इंसान थे।
इस प्रोजेक्ट के विरोध में कई मामले अदालतों और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में चल रहे हैं। देखें कौन जीतता हैं प्रकृति या मानव, हीरें या जंगल?
— जयश्री बिरमी