ग़ज़ल
बुझेगी प्यास सारी अब सियासी पानी से
चली है बात कुछ ऐसी ही राजधानी से
पिलायी जा रही मय जिस तरह हवाओं को
भला वो बाज कब आयेगी छेड़खानी से
बिछी बारूद हर पग जिन्दगी की राहों में
बड़ा शातिर समय चलना है सावधानी से
रहे हैं रंग जितने भी अलग वसूलों के
मिले वो रंग सारे जाके राजरानी से
कभी सूखा कभी सैलाब जब लिखे क़िस्मत
बसर होती कहां फिर जिन्दगी किसानी से
पसीना पोंछती जब जिन्दगी जवानी की
छुड़ा लेती उमर दामन भी नौजवानी से
जमीं अब देखती है ख्वाब आसमानों के
जुड़ेंगे ख्वाब सारे जाके जिन्दगानी से
लिखेगी सच वही जो भी नजर ये देखेगी
कलम बंधी कहां रहती है हुक्मरानी से
— डॉ रामबहादुर चौधरी चंदन