आज भी बेटियाँ अनमनी क्यूँ
स्त्री संसार रथ की धुरी और परिवार की नींव है कल्पना करके देखो बिना स्त्री के संसार की, रौनक और रोशनाई विहीन पूरी कायनात दिखेगी। फिर क्यूँ बेटीयाँ अनमनी होती है जब की स्त्री के बिना संसार ही अधूरा है।
जब कुदरत ने संसार रथ के दो पहिये में एक पहिया स्त्री को निर्मित किया है तो ये भेदभाव क्यूँ ? बेटा-बेटी में सदियों से हो रहा फ़र्क कब मिटेगा।
आज भी हर इंसान के भीतर एक चाह पल रही होती है कि एक बेटा तो चाहिए ही, पुरुष प्रधान समाज में अवधारणा बनी हुई है कि वंश बेटों से ही चलता है। लेकिन सच्चाई यह है कि यह मानसिकता बिलकुल गलत है। वंश तो बेटियां चलाती है, और वे एक नहीं, बल्कि दो-दो परिवारों का वंश चलाती है। नारी की कोख से ही नर उत्पन्न होता है। जरूरत है बेटीयों को मौका देने की। महिला को किसी सहारे की जरूरत नहीं है, बल्कि वह अपने दम पर कामयाब होने में सक्षम है बस समाज को नज़रियां बदलने की जरूरत है। इस विषय के छिड़ते ही सवाल उठता है कि आख़िर लड़का होना क्यों जरुरी है? तो हर कोई यही कहेगा कि लड़के से ही वंश चलता है, लड़का बुढ़ापे का सहारा होता है, लड़की तो पराई होती है, धर्मशास्त्रों में पुत्रवती माता को ही शुभ कहा गया है। बिना पुत्र के माँ-बाप की मुक्ति संभव नहीं होती वगैरह। पर आज के ज़माने में क्या गारंटी है कि हर बेटा बुढ़ापे में सहारा देता ही है, वृध्धाश्रम किसकी देन है ? कई ऐसे लोग है जिनका बुढ़ापा उनके बेटों के कारण ख़राब हो रहा है, और आज वे अपनी बेटियों के सहारे जी रहे है। आख़िर क्यूँ बेटी माँ बाप का सहारा नहीं बन सकती ? जिनकी सिर्फ़ बेटी ही होती है वह बेटी को पढ़ा लिखाकर सक्षम बनाएं तो कामकाजी लड़की बेशक माता पिता की मदद कर सकती है। आजकल कि कई लड़कियाँ माँ बाप कि अर्थी को कंधा भी देती है, और मुखाग्नि भी देती है। शास्त्रो की बात करने वालों को समझना चाहिए कि यदि आपको कोई सबसे बड़ा झूंठ ढूँढना हो तो वो आपको इन्ही ग्रंथों में मिलेगा। यदि धर्मग्रन्थ ही प्रमाण होते तो आज विश्व में अलग-अलग सम्प्रदाय पैदा ही नहीं होते, यही ग्रंथ कहते है कि ईश्वर अल्लाह एक है तो इतनी धर्मांधता क्यूँ फैली है। बेटा और बेटी दोनों का ही समान महत्व है कारण ये कि सृष्टि के संचालन हेतु दोनों का संतुलन जरुरी है । किसके यहाँ लड़का पैदा होगा और किसके यहाँ लड़की इसका निर्धारण हमारे वश में नहीं है और न ही इस बात की कोई गारन्टी है कि जिसके यहाँ बेटा है उसकी जिंदगी सुखी है और बेटी वाला दुखी है।
एक अंधश्रद्धा ने सबके मन में डेरा डाला है कि ‘बेटे के हाथों पिंडदान न हो तो मोक्ष नहीं मिलता। जब तक चिता को बेटा मुखाग्नि नहीं देता, आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती। आज भी हमारे देश का एक बहुत बड़ा हिस्सा मोक्ष के जाल में उलझा हुआ है। मोक्ष यानी आत्मा का जन्मजन्मांतर के बंधन से मुक्त होकर परमात्मा में विलीन हो जाना।
अंधविश्वास की नगरी में पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई है। गरुड़ पुराण के अनुसार, ऐसी मान्यता है कि पुत्र के हाथों पिंडदान होने से ही जीव मोक्ष को प्राप्त करता है। पुराण के अनुसार, मोक्ष से आशय है पितृलोक से स्वर्गगमन और वह पुत्र के हाथों ही संभव है। इस वजह से हमारे समाज में एक धारणा बनी हुई है कि प्रत्येक माँ बाप को एक लड़का तो होना ही चाहिए फिर चाहे वो जैसा भी हो। जिसके बेटा नहीं होता उसे बदनसीब तक समझा जाता है। लड़के की यह चाह परिवारों में संतानों की संख्या और देश की आबादी बढ़ा रही है।
प्रकृति ने बेटियों को संसार का मूल सौंपा है। कानून कड़े होते जा रहे हैं लेकिन हैवानियत पर रोक नहीं लग रही है, आज भी कहीं न कहीं बेटे की चाह में बेटीयों को कोख में ही कत्ल कर दिया जाता है।
आख़िर कब तक ये मसला चलता रहेगा।
— भावना ठाकर ‘भावु’