सामाजिक

पढ़ाई लिखाई के असली मायनों को पहचानों

पढ़ाई विनम्रता, संस्कार और सुविचारित सोच को तेज़ करते इंसान को एक सुलझा हुआ व्यक्तित्व प्रदान करती है। पढ़ लिखकर इंसान खुद को एक आयाम देकर समाज में प्रस्थापित करता है।
परिवर्तन संसार का नियम है, हर चीज़ की तरह कुछ साल पहले के मुकाबले महिलाओं की स्थिति में भी विराट परिवर्तन देखने को मिल रहा है।
पहले लड़कियों के खानपान से लेकर पढ़ाई तक इतना महत्व नहीं दिया जाता था जितना आज के युग में। बहुत अच्छी बात है लड़कियां पढ़ लिखकर आगे बढ़ रही है। पर पढ़ाई, लिखाई और आधुनिकता का ये मतलब हरगिज़ नहीं की अपने आप को सर्वस्व समझते वो दायरा तय करते बाहर निकल जाओ जो एक लड़की या महिला को गरिमा बख़्शता है।
अपने विचार, अपने स्वभाव, अपने हावभाव, अपने पहनावे में और व्यवहार में छिछोरापन आपके पढ़े लिखे होने पर प्रश्नार्थ खड़ा कर देता है। एटीट्यूड जरूरी है अहं नहीं। पढ़ लिखकर सक्षम बनना अपने आप में एक गर्व की बात है। पर पढ़ लिखकर खुद को कुछ समझते बाकियों को तुच्छ समझना गलत बात है।
शादी के लिए वर तलाश करते वक्त कुछ पढ़ी लिखी लड़कियों के नखरें इतने अजीब होते है की 30 पार कर जानें पर भी कोई पसंद ही नहीं आता। नशा हर चीज़ का बुरा होता है अहं और अभिमान का नशा ज़हर से भी ज़हरिला है। पढ़ी लिखी नौकरी करती कुछ महिलाएं शादी कर भी लेती है तो पति को तुच्छ या पालतू समझते ऐसा व्यवहार कर देती है, मानों उसके लिए शादी का बंधन कोई मायने ही नहीं रखता। छोटी सी बात पर पति को त्यागने में पल भर भी नहीं सोचती। पढ़ी लिखी हो और उपर से पाँच पच्चीस हज़ार कमाने वाली हो तब तो चार कदम उपर ही चलने लगती है। पति को वश में रखना अपना परम कर्तव्य समझती है। पति पर अधिकार और कब्ज़ा जमाते सास ससुर से उनके बेटे को छीनने तक की मनोवृत्ति रखती है। पत्नी पिड़ीत  मर्दों को न्याय मांगने निकलना पड़ता है।
माना कि जी हुज़ुरी का ज़माना नहीं रहा, तो मैडम मुखर होते मर्दों का दमन करने का ज़माना भी नहीं आया। पति का अपना एक स्थान होता है, आदर होता है, रुतबा होता है। पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने में आपकी गरिमा छलकेगी न कि पति से चार कदम आगे निकलते प्रतियोगिता करने में।
साथ ही आजकल की कुछ लड़कियां  आधुनिकता की होड़ में अश्लीलता को अपना कर संस्कृति, परंपरा और रीति रिवाजों से परे होती जा रही है। हर जंजीरे तोड़ कर मुक्त भले हो गई, समय की मांग भी है पर कुछ लड़कियां मान मर्यादा का हर जामा उतार कर एक ऐसी  दहलीज़ पर जा खड़ी हुई है जहाँ स्त्री ज़ात को देखकर स्त्री को भी लज्जा आने लगती है। फ़िल्मों में लड़कियां जो अंग प्रदर्शन करते कामुकता सभर द्रश्यो में हर सीमा पार कर देती है तब लगता है जन्मदात्री अपनी अस्मिता खो रही है।
फ़िल्में पहले के ज़माने में भी बनती थी, हीरोइनें संपूर्ण परिधान में भी अपनी अदाकारी के दम पर अपना लोहा मनवाती थी। अब तो हौले-हौले परत दर परत हटते बदन से कपड़े हटाकर देह लालित्य दिखाने की कला में माहिर लड़कियों ने शर्म हया बेच खाई है।  शायद कुछ मार्डन ख़यालात की महिलाएं  मेरे विचारों पर विद्रोह की लाठी चला देगी कि अब तो ज़माना कहाँ से कहाँ पहुँच गया, ये सारे विचार दकियानुसी लगते है। उस पर मैं यही कहूँगी ज़माना भले आधुनिकता की क्षितिज तक पहुँच गया हो, कुछ मर्दों की नज़र और सोच में वासना के कीड़े आज भी तिलमिला रहे है। ज़ाहिर सी बात है भूखे भेड़िये के आगे मनपसंद व्यंजन परोस दोगे तब टूट पड़ेगा ही। कुछ सीधे सादे मर्द पत्नियों के हाथों प्रताड़ित होते रहते है, सारे कायदे कानून स्त्रियों के हक में होने की वजह से उफ्फ़ तक नहीं कर पाते और कुछ ससुराल वालें पढी लिखी बहूओं के नखरें उठाते निढ़ाल हो रहे है।
हर बार, हर बात में महिलाओं का पक्ष लेकर मर्दों को और ससुराल वालों को लताड़ना सच को झूठ साबित नहीं करता। बिलकुल ऐसी सोच और ऐसी फ़ितरत वाली लड़कियां भी होती है जिनके सर में आधुनिकता और पढ़ाई लिखाई की राय ऐसे भर जाती है जिसके आगे उन्हें सब बेकार लगता है।
— भावना ठाकर ‘भावु’

*भावना ठाकर

बेंगलोर