कविता

होली का भाव

होली के हुड़दंग का
उल्लास खोता जा रहा है,
ऐसा लग रहा जैसे
इस पर्व का भाव खोता जा रहा है।
अब न रिश्तों में मिठास है
न ही अपनापन बचा है,
ऐसे में होली का रंग भी
बेहद फीका हो रहा है।
देवर भाभी, जीजा साली की
जोराजोरी पर जैसे अंकुश लग गया है,
या मान लें कि इस रंग बिरंगे पर्व पर
ग्रहण सा लग गया है।
अब तो फाग के स्वर विलीन से हो गये हैं
रंग भी लग रहे हैं फीके
कब आई होली कब चली गई
जैसे मेट्रो रेल आई और चली गई।
होली मिलन भी अब भाव खो रहा है
होली मिलन की परंपरा में
स्वार्थ का रंग मिल गया है।
अब तो मुझे ये डर सताने लगा है
ऐसा मुझे लगने लगा है
धीरे धीरे समय के साथ साथ
रंग बिरंगी अपनी होली
कोमा की ओर बढ़ रही है।
दर्द बहुत बढ़ रहा है मेरा
ये कैसा बर्ताव होली के साथ हो रहा,
रंगों का ये त्योहार अब तो
साल दर साल भाव खो रहा।
लगता है क्या आपको भी
या सिर्फ हमें ही लगता है
होली इतिहास बनने की ओर
साल दर साल बढ़ रहा हैै।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921