सच के आईने में…
/ सच के आईने में.. /
हाँ, गंदे हैं वे
मट – मैले भरे रहते हैं
बदबू आती है
जिनके तन से
समय पर नहाते नहीं
दूसरा कपड़ा नहीं होता
तन ढंकने के लिए
नंगे – अधनंगे से
जैसे को तैसा वे
दिन – रात काटते हैं
फुटपात पर, रेल्वे स्टेशन में,
बस स्टांड पर भीख माँगते
समाज के हर कोने में
दीनता का स्वर है इनका
कड़ी धूप और बारिश को
अच्छी तरह वे जानते हैं
हाँ, वे दुबला – पतला होते हैं
पेट और पीठ एक जैसा होता है
दो जून की रोटी के लिए
नित्य तरसते रहते हैं
भूख की पीड़ा से ज्यादा
अपमान को सहनते हैं
कई नाम हैं जिनके
सवर्णों की जुबान पर
वो हीनता के सूचक हैं
लोग दूर से उन्हें
तिरस्कार के स्वर में
दुत्कार देते भगाते हैं
अस्पृश्य की संज्ञा देकर
गाँव से, नगर से
मान – सम्मान से दूर – दूर
काल की कठोरता ने
इनको कला दी है
वह सवर्णों के सुख – भोग का
औजार बन चुकी है
अपने समाज में
अलग जीवन है इनका
राज्य, देश, शासन, ओहदा
अपनी बातें नहीं
सवर्ण समाज का मानते हैं
सबके साथ
अपना चेहरा दिखाते हुए
चलने की चाह
सवर्णों की पाखंड में
हजारों साल पहले
उन्होंने गड्डे में समाया है।
—- पैड़ाला रवीन्द्र नाथ ।