कविता

पता है मुझको भी

शत्रु करेंगे घात, पता है मुझको भी
कब दिन है, कब रात, पता है मुझको भी
बचने हित आए पक्षी, उड़ जाएँगे
थमते ही बरसात, पता है मुझको भी
वह सारा अपराध ले रहा अपने सिर
क्या है सच्ची बात, पता है मुझको भी
हरा – भरा है वृक्ष, मुदित है पतझड़ तक
झड़ जाएँगे पात, पता है मुझको भी
घर से बेघर हो जाओगे, क्या होगा
कहाँ जाओगे तात, पता है मुझको भी
अंतस रहा अभी तक सूखा – सूखा ही
केवल भीगा गात, पता है मुझको भी
— गौरीशंकर वैश्य विनम्र

गौरीशंकर वैश्य विनम्र

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