कविता

मौन की पीडा

खामोशी
जब पसरती है
कभी आँगन में
तो कभी
मन से मन के
दरम्यां
वह क्षण
होते हैं
असहनीय
मगर
उस वक्त
शान्त जल में
कंकर उछालना
यानि
अस्थिरता, चंचलता
या कहूँ तो
तुफान का
आगाज करना भी होता है।
जानता हूँ
इच्छा
और सीमायें भी
आपकी
अपनी
मन की।
तुम्हारी मुखरता
यानि आक्रोश
जिस पर
मेरा भी क्रोध
गलत लगता होगा
जानता हूँ।
कभी
आजमा कर देखना
मेरे
पाषाण हृदय को
विचलित हो जाता है
तुम्हारे
कष्ट के अहसास से
प्रयास रत भी
देने को शुकून
पल हर पल
मगर
व्यक्त नही कर पाता
अपना स्नेह
प्यार
शायद
पुरूषत्व अहंकार के कारण
क्योंकि
डर लगता है
कहीं
कमजोर न पड जाऊँ
जीवन सफर में
खो न जाऊँ
संसार के
झंझावातों में।
शायद
शायद इसलिये ही
नही कर पाता
व्यक्त
अपना प्यार
स्नेह
और
घुटता भी हूँ
खुद ही
भीतर ही भीतर।
शायद
शायद नही
अपितु
यही सत्य है
पुरूष
स्वयं सहता है
कुछ नही कहता है
ताकि
बना रहे
वह मजबूत
जमाने की निगाह में
और
अपने परिवार की दृष्टि में भी
कठोर।
काश
कोई समझ सके
अनकहा दर्द
वेदना
पलकों में कैद
आँसु
दिल में उठते
ज्वार भाटा
मेरे
मौन की पीडा।
— अ कीर्तिवर्धन