दीवारें भी सुनती हैं…
दीवारें भी सुनती हैं शायद जो भी बात घटती है घर में,
कभी जब छोटी सी बात कलह बन जाती है घर में!
महसूस करती हैं घर की नींव की तरह जिस पर टिकता आशियाना,
होगा बंटवारा या मिलजुल कर रहेंगे और गूंजेगा तराना!
सहम जाती हैं और देती हैं धूप- छाँव का अहसास भी,
नहीं सिमटती टिकी रहती हैं बज्र सी देती सुरक्षा की आस भी!
कोई ढहने को न कहे सोचती रहती हैं दिन रात ये कहीं,
इनका मुकद्दर तो लिखता है इनमें रहने वाला इंसान ही!
सुन कर समझ जाती हैं हो जाती हैं हमारी तरह उदास भी,
जब बजती है शहनाई और होती बिटिया की विदाई यहीं!
हाँ, ये दिवारें कानों वाली होती हैं कुछ खास ही! !
कामनी गुप्ता***
जम्मू!