पिता के संघर्ष के दोहे
पिता कह रहा है सुनो,पीर,दर्द की बात।
जीवन उसका फर्ज़ है,नहिं कोई सौगात।।
संतति के प्रति कर्म कर,रचता नव परिवेश।
धन-अर्जन का लक्ष्य ले,सहता अनगिन क्लेश।।
चाहत यह ऊँची उठे,उसकी हर संतान।
पिता त्याग का नाम है,भावुकता का मान।।
निर्धन पितु भी चाहता,सुख पाए औलाद।
वह ही घर की पौध को,हवा,नीर अरु खाद।।
भूखा रह,दुख को सहे,तो भी नहिं है पीर।
कष्ट,व्यथा की सह रहा,पिता नित्य शमशीर।।
है निर्धन कैसे करे,निज बेटी का ब्याह।
ताने सहता अनगिनत,पर निकले नहिं आह।।
धनलोलुप रिश्ता मिले,तो बढ़ जाता दर्द।
निज बेटी की ज़िन्दगी,हो जाती जब सर्द।।
पिता कहे किससे व्यथा,यहाँ सुनेगा कौन।
नहिं भावों का मान है,यहाँ सभी हैं मौन।।
पिता ईश का रूप है,है ग़म का प्रतिरूप।
दायित्वों की पूर्णता,संघर्षों की धूप।।
पिता-व्यथा सुन लें ज़रा,करें आज सब गौर।
मुश्किल का चलता सदा,संग पिता,नित दौर।।
— प्रो.(डॉ.) शरद नारायण खरे