स्वाभिमान
”इतना शोर क्यों कर रही हो गौरैयाँ! मुझे वीडियो नहीं सुनाई दे रहा?” उसने कहा.
”तुम लोगों की नादानी के कारण कोरोना आया, लॉकडाउन लगा और बड़ी मुश्किल से हमें शुद्ध हवा में सांस लेने और गाने-गुनगुनाने का मौका मिल रहा है और तुम्हें यह शोर लग रहा है! हम शोर नहीं कर रही हैं, हम तो विजय श्री का आशीर्वाद दे रही हैं.” समूह की वरिष्ठ गौरैया ने विनम्रता से कहा.
”विजय श्री का आशीर्वाद! किसको?”
”दिवाकर को.” गौरैया ने उसे हतप्रभ करते हुए कहा.
”दिवाकर तो सदैव से अजेय है, उसे तुम्हारे आशीर्वाद की क्या आवश्यकता आन पड़ी है भला?’
”तुम शायद सूर्य की बात कर रहे हो, हम तो उस छोकरे की बात कर रही हैं, जिसे तुमने कल पैसों का लालच देकर प्रदर्शनी के लिए उसका फोटो उतारा था.”
”अच्छा, वो ताले-चाबी वाला छोकरा! उसने तो पैसे लेने से इंकार कर दिया. भुखमरी से मरियल-सा छोकरा और अकड़ तो देखो उसकी! कहता था- ”फोटो उतार लो, कुछ खरीदो तब पैसे लूंगा, मैं भीख नहीं लेता साहब!” बड़ी बेहूदगी से हा-हा-हा कर वह हंस पड़ा.
”उसे स्वाभिमान भी तो कह सकते हो!” गौरैया ने उसे समझाने की कोशिश की.
”वजूद ही नहीं रहेगा, तो स्वाभिमान का क्या करेगा?” अकड़ से उसकी गर्दन और तन गई.
तभी उसे लगा, कि उसकी जेब में घर की चाबी नहीं है. इधर-उधर बहुत देखा, पर चाबी होती तभी मिलती न!
थोड़ी देर बाद गौरैया ने देखा, वह उसी छोकरे से घर चलकर चाबी बनाने के लिए चिरौरी कर रहा था’
”परमात्मा के पास आपको देने के लिए,
हमेशा कुछ-न-कुछ होता है,
हर समस्या का हल,
हर परछाई के लिए प्रकाश,
हर दुख से निज़ात के लिए कोई निदान और
हर आने वाले कल के लिए कोई-न-कोई योजना.”
गौरैया ने स्वाभिमान को फलते हुए देखा था.