लौह सलाखें
क्यों पंख समेटे पिंजरे में,
टकटकी लगाए अम्बर में।
आकर प्रपंच की बातों में,
खुद को सौंपा किन हाथों में।
जो दर्द तेरा न जान सके,
न खुशी तेरी पहचान सके।
वे अपने भी कैसे अपने,
जिनको चुभते तेरे सपने।
आजादी तेरी खलती है,
उनके दानों पर पलती है।
क्यों मान लिया है भाग्य यही,
क्यों ठान लिया उड़ना ही नहीं ।
तू डर को पीछे छोड़ जरा,
ये लौह सलाखें तोड़ जरा।
निज अस्तित्व बचाने को
हो जा आतुर उड़ जाने को।