रानी परी
आज बिरजू बहुत निराश मन लेकर बाजार से लौटा।जितनी मूर्तियाँ वह बेचने के लिए साथ ले गया था,वैसा का वैसा वापस ले आया।उसकी एक भी मूर्ति नही बिकी।इस कारण वह बहुत दुखी है।
उसके बूढ़े पिता जी बिरजू को देखकर दबी जुबान में खाँसते हुए कहता है-
“क्या हुआ बिरजू?”
“आज तू इतना उदास क्यों है?”
तब बिरजू हताशा भरी आवाज में श्वास छोड़ते हुए कहता है-
क्या बताऊँ पिताजी!!आज पुनः मेरी बनायी मूर्तियाँ नही बिकी!”
तभी उसके पिता जी उसे धैर्य बंधाते हुए कहता है-
“बेटा इसमें हताश होने की कोई बात नही है।तुम मूर्तियाँ बहुत अच्छी बनाते हो,जब ग्राहक पसन्द नही कर रहे हैं,तो निश्चित ही उसमे और सुधार करने की आवश्यक्ता है।”
अपने बीते दिनों को याद करते हुए अपनी लग्न-मेहनत और कलाकारी को वह बुजुर्ग पिता अपने बेटे बिरजू को बताता है।आज वह बूढ़ा हो चला है।उसकी सारी इंद्रियां जवाब दे गई हैं।और इस कलाकारी को वह अपने बेटे बिरजू को सीखा दिया है।
अपने पिता की सीख भरी बातों को सुनकर बिरजू कुछ सोंच में पड़ जाता है।और उसी समय वह उन मूर्तियों की पोटली को खोलकर सर से लेकर पाँव तक एकटक देखने लगता है।
उसने रानी परी से लेकर बहुत सारी छोटी-छोटी परियाँ बनायी थी।सभी एक से बढ़कर एक दिख रही थीं। उनको देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो स्वर्ग की परियाँ धरती पर उतर आईं हों।पर बाजार में वही मूर्तियाँ बिक नही रही थी।ग्राहक आते उन मुर्तियों को देखते और चले जाते।इस तरह से जाते हुए देख आखिर में बिरजू ने पूछ ही लिया-
“क्यो?क्या हुआ बाबू जी?”
“क्या मूतियाँ पसन्द नही आयी?”
“आपको कैसी मूर्तियाँ चाहिए?”
इतने सारे प्रश्नों को सुनकर वह आया हुआ ग्राहक स्तब्ध रह गया।
तब वह मूर्तियों की ओर देखते हुए कहता है- “मुझे सोलह श्रृंगार वाली मूर्तियाँ चाहिए, जो रानी परी की तरह लगती हो।”
इतना कहकर वह चला जाता है।तब वह बिरजू सोलह श्रृंगार की बात को गहराई से सोंचने लगता है।और घर जाकर सारे सोलह श्रृंगार को इकट्ठा किया।फिर उसने रानी परी का सोलह श्रृंगार किया।श्रृंगार होने के बाद वह परी दुल्हन की दमक उठी।दूसरे दिन वह बाजार लेकर पहुँच गया।हरेक आने-जाने वाले उस मूर्ति को देखकर वाह!वाह!करने लगे।कुछ समय बाद वही बाबूजी जो सोलह श्रृंगार की बात कह गया था।उसको देखकर-वाह वाह करने लगा।अद्भुत!!और प्रसन्न हो गया।और तुरन्त उस छोटे मूर्तिकार बिरजू से कहा- “चलो भाई तुम इस मूर्ति को रख लो और मेरे घर छोड़ दो।पास ही मेरा घर है।तब वह छोटा मूर्तिकार बिरजू जी!बाबूजी!कहकर उसके साथ चला गया। उस बाबू जी की नन्ही बिटिया घर के आँगन में खेल रही थी।उसके पिता जी ने कहा- “बिटिया देखो तुम्हारे लिए क्या लाया हूँ?”
इतना कहना ही था कि उस नन्ही बिटिया की नजर उस परी पर पड़ जाती है।उसको देखकर “फुला नही समाती” और एक ही पल में लपक कर उस रानी परी को छीन कर सीने से लगा लेती है। और खुश होकर बार-बार चिल्ला रही थी-रानी परी आ गई!!रानी परी आ गई!!
छोटा मूर्तिकार बिरजू उस नन्ही बिटिया को और अपने हाथों में पैसा को देखकर मंत्रमुग्ध हो गया।
— अशोक पटेल “आशु”