कविता

व्यंग्य -हंगामा

फुर्सत ही फुर्सत है यार, तो कुछ करते हैं,
और कुछ नहीं तो, हंगामा ही करते हैं।
बैठे डालें रहने से भला क्या फायदा
शांत तालाब में पत्थर ही उछालते हैं।
या फिर झूठी अफवाह ही फैलाते हैं
अपरा तफरी का आनंद ही उठाते हैं।
अच्छा नहीं लगता ये भाई चारा यारों
आइए भाई को भाई से ही लड़ाते हैं।
साम्प्रदायिक सद्भाव की जड़ें जम जायें,
उससे पहले उसमें मट्ठा ही डालते हैं।
अमनों चैन का एकाधिकार हो जाये
इससे पहले कुछ गुल ही खिलाते हैं।
दिमाग में हो रही खुजली बहुत मेरे
खुजली मिटाने का उपाय अपनाते हैं।
हर ओर शान्ति है अच्छा भी नहीं लगता
आइए कुछ हंगामा कर खुजली मिटाते हैं।
हंगामे को कहीं जंग ने लग जाये यारों
इसलिए हंगामे को कसरत कराते हैं।
हंगामा करना मेरा मकसद तो नहीं
बस हंगामे की पूंछ में पलीता लगाते हैं।
बाकी सब हंगामा कर ही लेगा प्यारे
हम सब दूर दूर बैठ तालियां बजाते हैं।

*सुधीर श्रीवास्तव

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