सामाजिक

दिवास्वप्न या कुछ और?

कोई कितना सफल हो सकता हैं ये तो शायद उनकी मेहनत करने पर निर्भर होता हैं,चाहे समय लगे लेकिन एक न एक दिन सफलता जरूर मिलती हैं।लेकिन असफलता पाने के लिए मेहनत करने वाले एक ही महाशय हैं ,ये हम सब जानते हैं।वैसे कई मंत्रियों को देखा हैं राजकरण में 25 से 30 वर्ष तक भी संघर्ष कर ने के बाद ही सही एक महत्वपूर्ण,मनोनित पद पा ही लेते हैं, चाहे उनके कोई गोड़ फादर न भी हो।
लेकिन यहां तो सब कुछ विरासत में मिला हैं,नाम,ओहदा,संपत्ति और क्या क्या नहीं फिर भी सफलता ऐसी हैं कि मुंह दिखाई करने का नाम ही नहीं ले रही।क्यों ये भी एक प्रश्नार्थ ही हैं।जिनके खून में तीन तीन पीढ़ी की सियासत हैं उन्हे क्यों सफलता वर नहीं रही? पड़ नाना( शायद यही रिश्ता ठीक रहेगा)दादी भी एक सख्त दिल की राजकरणी,पिता थोड़े सॉफ्ट किंतु साथ में सख्त राजकरणी और मां तो डुगडूगी वाली जिसे बजा बजा कर दस सालों तक देश को चलाया और एक जहीन अर्थशास्त्री को भी खूब नचाया।बोलते हैं तरखान का बेटे को तर्खवानी सिखानी नहीं पड़ती।और दर्जी के बेटे को भी दर्जी का काम नहीं सीखना पड़ता हैं,कारण एक ही हैं जो उन्हों ने बचपन से देखा–सुना हैं वही सब उन्हे अपने आप ही समझ में आ जाता हैं किंतु यहां ये नियम शायद गलत साबित हुआ हैं।वैसे अपवाद तो हरेक नियम में होता ही हैं।
कितना पढ़े हो ये तो ठीक हैं किंतु राजकरण में डिग्री की कोई अहमियत नहीं हैं,तजुर्बा भी काफी काम आता हैं।लेकिन तजुर्बा पाने के लिए भी निरीक्षण कर ग्रहण करना पड़ता हैं कोई भी काम घुट्टी बना के पीला कर सिखाया नहीं जाता हैं।अगर बगैर घुट्टी के काम सीखना हो तो प्रयत्न से ही सीखा जा सकता हैं।
लेकिन यहां तो वो भी नाकामयाब होता दिख रहा है।जो बचपन से देखा सुना, पढा लिखा सब कुछ व्यर्थ ही हैं। न तो वचनों और व्याख्यानों में प्रभाव हैं और न ही बॉडी लैंग्वेज में।पहले जब प्राथमिक राजकरणी थे तब तो साक्षात्कार में कैमरे से दूर कार्ड्स पर लिखा पढ़ कर जवाब देते हुए भी देखे गएं हैं और अब पक्के राजनैतिक होने का दावा करते हुए वचनों में तो सुधार हुआ हैं किंतु बॉडी लैंग्वेज तो वही हैं जो हुआ करती हैं।जब प्रधान मंत्री को आंख मारके गले मिलने वाले दृश्य तो देवताओं को भी दुर्लभ लगे हो होंगे।कई बार कैमरे में सोते पकड़े जाना, माइक पकड़ने में या बोलने में गलती करना।अजीब अजीब तरीके बता विकास की बात करना। वैसे जब मनमोहन सिंघ प्रधान मंत्री थे तब दोनों भाई–बहन को कोई न कोई पोर्टफिलियो ले अनुभव ले लेना था किंतु शायद प्रधान मंत्री से कम कोई भी पद उनकी शान के खिलाफ होगा तभी प्राइमरी की शिक्षा से पहले ही कॉलेज में दाखिला चाहिए उनको।
अपनी कार्यदक्षता से ज्यादा की उम्मीद ने आज उनके दल को काफी हानि पहुंचाई हैं और अगर समझें नहीं तो बहुत बड़ा खामियाजा पार्टी को भरना होगा।
2019 के चुनाव से पहलें विविध शैक्षणिक संस्थाओं में दिए गयें भाषणों में अपने आप को एक सशक्त नेता बताने की भरपूर कोशिश की लेकिन उसमें भी नाकामयाब रहें और ज्यादा दयनीय परिस्थियाँ का उदाभव होने लगा था।कुछ भी लिख के दो पढ़ तो लेंगे किंतु उसका सार ग्रहण करना उनके बस की बात ही नहीं हैं। हर बात अक्षम रहना एक आम बात ही हो गई हैं।ये उनके व्यक्तित्व का एक खास पहलू हैं।जो चीन के साथ करार किए हैं उसका मतलब क्या हैं ये भी समझने में शायद असमर्थ हैं।जो उनके पिता, पितामह और दादी ने देश को चीन के सामने बौना बनाके रखा था वही कार्य ये भी कर रहे हैं। राजनीति के साथ साथ देश भक्ति का होना भी अति आवश्यक बन जाता हैं। हर बात का निबाह बुद्धिमानी से करना तो दूर,उन्ही को ले के उल्टी सीधी चर्चाएं कर बात को उलझाना एक आम बात हैं।
विख्यात राजनैतिक आर्किटेक्ट प्रशांत किशोर भी शायद उन्हें मदद नहीं कर पाए क्योंकि जिस दल में नेता समर्थ और बुद्धिमान हो उन्ही का काम हाथ में लेंगे।2017 के यू पी चुनावों की नाकामयाबी भी तो लिखी गई हैं उनके खाते में।लेखा जोखा करें तो असफलता का पलड़ा खूब भारी दिखता हैं,और सफलता तो ढूंढने से शायद ही मिले।सफलता को ढूंढ ने के लिए सूक्ष्मदर्शक यंत्र का प्रयोग करे तो शायद दिख जाएं।जब मातुश्री की तबियत ठीक नहीं रहती तो दो लघु दृष्टाओं से काम चलाना पार्टी के लिए एक मुश्किल कार्य बन जाता हैं।
प्रधान मंत्री बनने की चाह एक दिवास्वप्न से ज्यादा कुछ नहीं कह सकते हैं।आगे तो वक्त ही बताएगा कि उनकी पार्टी कहां पर जा के रुकती हैं।

— जयश्री बिरमी

जयश्री बिर्मी

अहमदाबाद से, निवृत्त उच्च माध्यमिक शिक्षिका। कुछ महीनों से लेखन कार्य शुरू किया हैं।फूड एंड न्यूट्रीशन के बारे में लिखने में ज्यादा महारत है।