बसंत बहार
कवि मन नर्तन करे
पाँव भी थिड़कन लगे
गुलमोहर ने बिछाई
रक्तवर्ण पुष्प जब धरा पर
अमलताश भी सुरभित होकर
स्वर्णआभा बिखेरे गगन पर
आ रही माँ की सवारी
झूमते खग पुष्प वृंद सब
प्रकृति चोला बदल रही
नवयौवना सी इठलाती हुई
कोयल की कूक सुनाई देने लगी
ब्रह्ममुहूर्त शुरू होते ही
ढ़ोल नगाड़े और मंजीरे
बज उठे हैं आज सारे
कलशयात्रा में हैं निकली
माँ दुर्गा की बेटियां हमारी ।
बैलों की घंटी भले ही नहीं सुनाई दे
कृषक हूलस कर गाते चैता मदभरी ।
नववर्ष के शुभ आगमन पर
झूम उठी बसंत रानी हर कहीं ।
— आरती रॉय