लघुकथा

बोझिल क्यों हैं ढलती सांझ!

बोझिल क्यों हैं ढलती सांझ!
खांसी करते करते आंखों से पानी बहने लगा। इतना साहस न था कि उठकर पीने के लिए पानी लाये कोमल। आवाज भी क्षीण हो गयी थी। पास में खाली बोतल पड़ी थी। कामवाली लछमी काम की अधिकता में शायद भूल गयी होगी। वरना घर जाने से पहले वह सारा इंतजाम कर जाती हैं। बिना बताए, बिना नागा। कोमल, अपने नाम की तरह ही कोमल हृदया थी वह। न किसी से कोई झगड़ा टंटा, न झूठ फरेब। सीधा साधा जीवन। शिशिर जी के साथ खूब सुखी थी। अचानक हॄदय की गंभीर बीमारी से वे साथ छोड़ गए। अपने आंसू पोंछकर, गम को अनदेखा कर अपने बेटे विशाल और बेटी विधा की जिम्मेदारी कोमल ने बखूबी निभाई। अपने दोनों बच्चों का घर बसाकर सोचा था उसने, वह अब तीर्थ दर्शन करेगी। धर्म ध्यान में मन लगा देगी। कुछ सोचते हुए कोमल उठने जा रही थी कि पैर फिसलकर गिर पड़ी। उसके बाद क्या हुआ उसे पता नहीं। शायद वह बेहोश हो गयी थी। सिर में कोई नुकीली चीज चुभी थी। आज अपंग सी परावलंबी जीवन जीने को मजबूर हैं वह। लछमी पूरी तन्मयता से उसका ध्यान रखती हैं। उसने कोमल के जीवन के सुनहरे पल देखे हैं। पूरी हमदर्दी हैं उसे अपनी मालकिन के साथ। नयी बहुरिया यही बात पसंद नहीं करती। विशाल अपने काम में मगन रहता हैं। घर में क्या हो रहा हैं, उसे कोई लेनादेना नहीं। बूढ़ी मां के आंसू कौन पोंछे? दो दिन से लछमी की तबियत ठीक नहीं हैं। उसकी बेटी सुहासी काम करने आ रही हैं। सुहासी जितना कर पाए, कर रही हैं। उसका मन होता हैं, वह उसकी मदद करें। नही कर पाती वह कुछ। जैसे जैसे दिन बीत रहे थे, हल्की हल्की सुगबुगाहट उसके कानों तक रेंगती हुई पहुंच गई थी। वृद्धाश्रम का जिक्र हो रहा था। “यह सस्ता और अच्छा भी हैं।” विशाल और उसकी पत्नी विदिशा सोच विमर्श कर रहे थे। भारी मन से अतीत की गलियों में घूम आयी वह, जहां स्वर्ग सा सुंदर घर संसार था उसका। नींद आंखों से कोसों दूर थी। संध्या काल में जिंदगी इतनी बोझिल होगी, सोचा भी न था उसने। वह जानती हैं,  आज अपनी जिंदगी का नया अध्याय शुरू हो रहा हैं। वृद्धाश्रम की खिड़की से बाहर झांक रही थी वह। सूरज की सुनहरी किरणें जीवन की ऊर्जा ले आयी हो जैसे। बगियां से फूलों की महक ले पवन आया। तरोताजगी से मन भर आया उसका। बिस्तर से उठने की कवायद कर ही रही थी कि “दादी” मीठी आवाज से वह चौंक गयी। चाय बिस्किट लेकर किशोरी मुस्कुराती कह रही थी, “दादी, चाय बिस्कुट लेलो।’” आंखें डबडबाई उसकी। अपने नये रिश्तेदारों के साथ नया नाता जुड़ गया था।

*चंचल जैन

मुलुंड,मुंबई ४०००७८