हे! प्रिये मैं क्या करूँ,
हे! प्रिये मैं क्या करूँ,
बेवजह तू पड़ गयी, बेकार के झमेलों में
देखो अब तुम फंस गई, दूषित मन के मेलों में
कौन इमदाद करेगा अब, इंसानियत बिकती यहां
मानवता सारी रौंद गयी, हैवानियत टिकती यहां
तू ही बता ये जिंदगी!
तेरा अब मैं क्या करूँ
हे! प्रिये मैं क्या करूँ,
कैसे बचें चराग़ अब, फानूस ही सब जल गए
जिसको अपना समझे थे, चापलूस वो निकल गए
ये जिंदगी तू देख उठकर! सियासत में फंस गई
थी कोई सोने की चिड़िया, ओ दलदल में धंस गयी
मतलब के इस “राज” में !
कहाँ तेरी फरियाद करूँ
हे! प्रिये मैं क्या करूँ,
राजकुमार तिवारी “राज”