प्रेम को हम नहीं, प्रेम हमें चुनता है
जब भी सोचने बैठता हूँ या कल्पनाओं के समंदर में गोते लगाने के लिये सुबह आँख बंद करता हूँ या किसी से बात करते करते अनायास या जानबूझकर एक शब्द स्मृति पटल पर आता है प्रेम! औऱ ह्रदय आभास करता है इसका तो मन मस्तिष्क ही नहीं अपितु आत्मा भी तृप्त हो जाती है। इसकी लावण्यता और माधुर्यता आंनद से तर कर देती है जीवन को। इसका अहसास इतना सुखद होता है कि उस पल जिंदगी से भेंट हो जाती है। मन हुबहूँ ऐसा अनुभव करता है जैसे रेगिस्तान में प्यासे को पानी मिलने पर खुशी प्राप्त होती है। एक भवरें या तितली को खिलते हुए पुष्प के पराग से मृदु अनुभव होता है या पहली बरसात से धरती का ह्रदय सुख से तर हो जाता है या एक बीज बरसात के मृदुल अहसास से अंकुरित हो जाता है या एक माँ जब बच्चे को या एक बच्चा जब माँ को गले लगता है तब उन्हें आभास होता है या किसान को फसल देखकर जो अनुभूति होती है, बिल्कुल ऐसा ही अनुभव मैं भी करता हूँ । सरल शब्दों में कहूँ तो प्रेम सोचना ही परम आनंद का विषय है। यदि ये जीवन में है तो जीवन को बैकुण्ठ समझो क्योकि इसकी उपस्थिति महज आत्मा परमात्मा का एकाकार ही नही करवाती बल्कि आत्मा को परमात्मा में परिवर्तित कर देती है। नर को नारायण बना देती है। कृष्ण को योगीश्वर कृष्ण बना देती है। या कहूँ मानव को देवत्व नही बल्कि ईश्वरीय गुण प्रदान करती है। इस सृष्टि में एक प्रेम और एक साहित्य ही है जो इंसान को इंसान होने का बोध कराता है। ये होता तो इतना सरल है जैसे कि साहित्य में शब्द लेकिन इसे समझना चाहो तो उन शब्दों के अर्थों सी जटिलता भी रखता है। ये चुम्बन सहवास नर्म बिस्तर सुख सैय्या तक ही सीमित नही है बल्कि ये तो यहाँ होता ही न है और जिन्हें लगता है वो लोग या तो मानसिक तौर पर विकलांग होते है या मूर्ख या आंख बंद करके ये बोलने वाले कि समूची सृष्टि में अंधकार है। सात रंग होते ही नही है सिर्फ काले रंग को छोड़कर क्योकि प्रेम का प्रसार होता है सांसो में, भावों की भावनाओं में, आत्मा में, नर्क की आग में, स्वर्ग के ऐश्वर्य में, ईश्वर की भक्ति में, कण के गुरुत्व में, क्षण के बहाव में, सत्य के दर्प में, झूठ से घृणा में, अधर्म से क्रोध में, धर्म के आनंद में, पाप की कुत्सा में, पुण्य की लिप्सा में, मिलन के उल्लास में, जल की शीतलता में, प्रेम की प्रतीक्षा में, स्वयं की हत्या में, ख्वाहिशों की कुंठा में या कहूँ जीवन में हर जगह है।
ये अधिकार का भाव नहीं रखता न किसी पर अधिकार होने देता है लेकिन स्वयं जरूर अधिकार कर लेता है। ये उन्मुक्तता का दूसरा नाम होता है। क्योंकि ये दो लोगो को आत्माओं को उन्मुक्तता का दान ही नही करता बल्कि स्वयं भी उन्मुक्त होता है। कोई भी हो किसी का इस पर वश नही चलता, पर इसके वश में सब होते है। क्या जड़, क्या चेतन मुझे तो लगता है समय भी इससे स्वतंत्र नही है। वैसे तो समय रुकता नही है लेकिन भविष्य में संभव हुआ तो इसका कारण प्रेम ही होगा। प्रेम ही होगा जिसके लिए समय रूक कर स्वीकृति मांगेगा फिर से चलने की।
इस तरह ये तो स्पष्ट हुआ कि प्रेम कितना दिव्य अलौकिक उन्मुक्त होता है लेकिन जब कोई कहता है कि मैं उसको प्रेम करता हूँ तब एक प्रश्न उठता है मेरे मन मस्तिष्क में कि, क्या सामने वाला वास्तव में जिसे बोल रहा है, उसे प्रेम करता है? क्या वास्तव में उसने प्रेम का चयन किया है? क्योंकि जब जब मैंने चाहा है अपनी पसंद के व्यक्ति के लिये प्रेम का चयन मुझे ढोंग ,लालच, विश्वाघात के सिवा कुछ न दिखा। मैने जब जब दिया है उस रिश्ते को नाम वो वासना, स्वार्थ ,लोभ से बढ़कर कुछ न लगा है। जब जब तलाशी है मैंने उस रिश्ते में शांति ,सुकूँन के कुछ लम्हे तब तब हाथ आया है सिर्फ और सिर्फ क्षोभ लेकिन जब चयन किया है किसी रिश्ते ने मेरा या कहूँ प्रेम ने मेरा तो कुछ भी हो लालच, विश्वाघात, क्षोभ ,स्वार्थ जैसे शब्द किनारा जरूर कर गए है। रही बात उलझनों की तो जीवन मे एक बात तो बिल्कुल स्पष्ट है कि जीवन मे कष्ट है।परंतु कष्ट में भी जो सुकूँन दे वो प्रेम है। और हर दुनियाँ का शख्स प्रेम चाहता है हर शख्स सुकूँन चाहता है लेकिन सुकूँन हो या प्रेम वो स्वयं हमारा चयन करता है कब आना है उसको जीवन मे वो स्वयं निर्धारित करता है। शायद इसी लिए प्रेम उन्मुक्त है। अकेला है। मिलावट विहीन है। अन्य की तरह इसमें मिश्रण नही है जैसे कि हर सुख में होता है उसे खोने के दुःख का, हर क्रोध में होता है एक डर कि स्वयं पर नियंत्रण न खो जाये हर आशा में होता है जरा सा पुट निराशा का लेकिन प्रेम में ऐसा नही होता वो अकेला होता है और जिसका चयन कर लेता है उसे भी अपने जैसा कर लेता है एकांत का गुर समझा देता है। और कहलाता है यूँ कि प्रेम अकेले होने का एक ढंग है। चूंकि प्रेम भाषा की तरह सरल होता है ध्वनि की तरह सहज होता है किंतु अर्थ की दृष्टि में या समझने की दृष्टि से देखे तो व्याकरण की तरह जटिल औऱ समझ से परेय। इसी विशिष्टता के कारण प्रेम जितना सच्चा हार्दिक सुखद कोमल होता है उतना ही कठोर भी होता है। ये इसकी सहजता है कि ये मटके के पानी की तरह शान्त शुध्द और शीतल होता है लेकिन प्रेम विपत्ति के सागर में उन्मुक्त गोते भी खा सकता है। स्वीकृति अस्वीकृति की हर चोट प्रसन्नता से स्वीकार कर सकता है। बस सहन नही कर पाता है ये अवहेलना की एक चोट। इसके अतिरिक्त प्रेम गहरा सागर है जिसमें बुध्दि डूब जाती है या कहे जिसे ये चुनता है जिस भाव मे चुनता है वो उसी भाव मे रम जाता है। ये कभी आंधी है, तूफान है, शोला है, नाव है जो पार लगा देता है औऱ कभी प्यार खमोशी है ,नज्म है ,बज्म है ,सबा का शीतल झोंका है, फूलों का रंग है, तितली का अल्हड़ ढंग है, कभी सारी दुनियाँ से लड़ जाता है तो कभी कभी अंदर ही अंदर अपने आप से लड़ता रहता है। कभी ये प्रेम को पाने के लिए सात समंदर की दूरी भी पार कर लेता है जैसे राम ने की थी और कभी ये चार कदम का रास्ता नही तय करता जैसे कृष्ण ने राधा के लिए न किया था लेकिन इसके अतिरिक्त ये अटल सत्य है कि जो दूरियां दृष्टिगोचर होती है वो लोगो के लिए होती है समाज के लिए होती है। प्रेम तो हमेशा एक ही होता है। हर गणित हर प्रकृति से अलग यहाँ एक औऱ एक एक होता है और दो में से एक हटाने पर शून्य शायद इसलिये भले ही कृष्ण ने चार कदम की दूरी तय न की लेकिन कृष्ण और राधा आज भी एक है ।और यूँ आज भी कल भी या कहूँ सदा रहेगा है प्रेम विरक्त मिलन विछोह की उलझनों से। मिलन हो या विछोह वो शिरीष की तरह रहेगा सदैव प्रसन्न और कोमल। औऱ जिसको भी जिस भाव से चुना है इसने उसे हमेशा स्वयं में ढाल लेगा। औऱ हर युग मे रहेगा सारी बन्दिशों से आजाद एकांत शान्त मौन और अकेला। हर कण हर क्षण में बस आवश्यकता होगी तो महज चयन की कि, वो किसे चुनता है और जिसे चुन लेगा वो संसार की बहर से विलग हो जायेगा इसकी महानता क्योकि प्रेम जिसे एक बार चुन लें वो प्रेम हो जाता है।
अतः प्रेम किसी से होता नही है क्योकि हर संवेदनशील व्यक्ति प्रेम का भूखा है दुनियां में ऐसा कोई न होगा जो प्रेम न चाहे हर कोई प्रेम चाहता है लेकिन प्रेम होता बहुत ही कम लोगो को है। लाखो में कोई अदना ही होता है जिसे प्रेम चुनता है क्योकि अगर इंसान को प्रेम चुनना होता तो आज सृष्टि में हर कोई कृष्ण होता हर कोई शिव होता हर पुरुष श्री राम होता हर देवी राधा होती हर पत्नी सीता होती हर नारी मीरा होती हर प्रेमिका सती होती लेकिन सत्य से कोई अनविज्ञ नही है। औऱ मामला साफ है कि कोई भी प्रेम को नही चुनता बल्कि प्रेम स्वयं चुनता है । इसके अतिरिक्त ये भी सत्य कि किसी से प्रेम होता नही है बल्कि प्रेम पहले से ही होता है बस आवश्यकता होती है तो महज इतनी कि प्रेम आपको कब चुनना चाहता है। प्रेम आपको कब चूमना चाहता है। प्रेम आपको कब छूना चाहता है। प्रेम कब आपको स्पर्श से कोमल करना चाहता है। बाकी प्रेम तो सर्वत्र जैसे ईश्वर है। और हर कहानी में प्रेम होता नही है बल्कि होता है। और कोई भी प्रेम का चयन नही करता बल्कि प्रेम स्वयं चयन करता है कि वो किसे होगा। और ये चयन की अनूठी प्रक्रिया संचालित है प्रेम से ये बाध्य नही है प्रकृति की क्योकि बाध्य होती तो मीरा न होती ये तो अलौकिक है दिव्य है अपरिभाषित है ज्ञान से परेय है बुद्धि विवेक से उन्मुक्त है। लोक परलोक की बन्दिशों से आजाद है। वो कब ह्रदय में ढेरा डाल लें कह नही सकते है। देवेंद्र दागी की एक कविता है कि ”
हो सकता है हम सबसे खतरनाक रास्तों को आसानी से पार कर लें
और घर की चौखट पर ठोकर खाकर हमारे प्राण निकल जाये। हो सकता है तुम बात करते हुये न पकड़े जाओ नम्बर हटाते वक्त पकड़े जाओ।
दुःख कभी कभी इतने आराम से आते है
कि हम नींद में होते है और मर जाते है।”
बस प्रेम भी ऐसे ही चयन करता है कभी भी कही भी किसी भी क्षण किसी भी पड़ाव पर….