विश्वास
“पापा, अब आप लोग यहां इस शहर में अकेले नहीं रहोगे। फिक्र लगी रहती है और ऑफिस से बार बार छुट्टी लेकर आना भी संभव नहीं है।” माता पिता की गिरती सेहत से परेशान श्रवण बोला।
“पर तुम और बहू पूरा दिन बाहर रहते हो … फिर हम उधर आकर क्या करेंगे? कम से कम यहां सभी हमें जानते तो हैं, मन लगा रहता है।” पिता जी ने कहा।
“अगर ऐसी बात है, तो आप हमारे घर के पास ही बजुर्गों के लिए बनी हुई सोसाइटी में रह लेना। मेरे दोस्त के माता पिता भी उधर ही रहते हैं।” श्रवण इस बार उनकी हर “किन्तु-परन्तु” का जवाब ले कर आया था।
“चाहे कुछ भी हो जाए, यह घर तो मैं बेचने से रहा । और बिना इस घर को बेचे, दूसरा घर कहां से आएगा?” पिता जी बेटे की नियत पर शक करते हुए कहा।
“इतना तो आपका बेटा कमाता ही है कि मां बाप को छोटा सा अपार्टमेंट किराए पर लेकर दे दे।” शब्दों में मिठास भर श्रवण बोला।
“ठीक है,जैसा तुम उचित समझो। लेकिन एक बार यह भी विचार कर लेना कि शाख से अलग हुआ फूल दूसरी जगह मुश्किल से ही लगता है। इस उम्र में दूसरी जगह जाकर रहना क्या मुमकिन होगा?” पिता जी बोले।
“सही कह रहे हो पापा, पर आपने ही मुझे सिखाया था कि धान का पौधा दूसरी जगह रोपाई के बाद ही फलता फूलता है। तो एक बार आप भी जगह बदल कर देख लो।” बेटा भी हथियार डालने के मूड में नहीं था।
“और अगर रोपाई न हो पाई …., मैं एडजस्ट न कर पाया तो …?” पिता जी ने मन में अब भी संदेह था।
“तो पापा, दो- दो घर फिर भी आपका इंतजार करेंगे … एक आपके बच्चों का और दूसरा जिधर आप अभी रहते हो।” बेटा मां बाप के कदमों में झुकते हुए बोला।
बेटे पर विश्वास न करने की गुंजाईश अब खत्म हो चुकी थी।
— अंजु गुप्ता