विषमता
कहीं उदासी का मौसम है
कहीं बज रही शहनाई।
कहीं नीर बहते नैनों से
कहीं ख़ुशी की पहुनाई।
कहीं उजड़ता चमन किसी का
कहीं मन रही दीवाली।
बच्चा दिल रो रहा किसी का
कहीं मन रही खुशहाली।
करुण कहानी कहते काजल
बहते जाते आँखों से।
कहीं मस्त परवाज कहीं
घिसटे हैं टूटी पाँखों से।
अजब विधान तुम्हारा दाता
तेरी गजब कहानी है।
कहीं हँसी के फव्वारे तो
कहीं आँख में पानी है।
सब तेरे तू भी है सबका
इतनी रही विषमता क्यूँ?
समदृष्टि वाले दुनिया में ना है
तेरी समता क्यूँ?
शायद भाग्य करम से बनते
इसलिए यह होता है।
कर्म भाग्य का रहा नियंता
विरही मानव सोचा है?
— वीरेन्द्र कुमार मिश्र ‘विरही’