एक दिन श्रीलंका को पीछे छोंड़ देंगे
एक दिन श्रीलंका को पीछे छोंड़ देंगे
बात उन दिनों की है जब भारत के हर एक गांव में खलिहान हुआ करते थे] सभी ग्रामींण परिवेष में रहने वाले भारतीयों के मकान कच्ची मिट्टी और घास फूस से बने छानी छप्परनुमा हुआ करते थे, गांव के चारों ओर हरियाली ही हरियाली रहती थी, और परजीवी प्राणी भी पेंड पौधौं से लेकर घर के छानी छप्परों तक अपना घोंसला बना लिया करते थे, सांझ होते ही गांव के आस पास के झुरमुटों में बसेरा पर लौटे पंक्षियों की चहचहाट सुनाई देती थी, सबसे सुन्दर नजारा तो बरसात के दिनों में देखने को मिलता था जब तालाब में रहने वाली वनमुर्गी अपना घोंसला बना कर अण्डे देती थी तो उसका घोंसला अण्डे बच्चों सहित पूरे तालाब में सैर किया करता था और वनमुर्गी भी उसी घोंसले में सवार अपने चूजों को दाना चुगाया करती थी, सांझ होते ही जुगुनुओं की चमक पेंड़ों और तालाबों के पास ऐसे होती थी मानो कि आसमान के सारे सितारे पेंड़ों और तालाबों के पास आ गये हों सांझ को पूरी तरह से अपनी आगोश में जकडने की कोशिश कर रहें हों।
उस दौर में भारत के सभी नागरिक प्रकृति के बहुत ही करीब रहते थे, उस दौर में शिक्षा का अभाव होते हुये भी सभी नागरिको के पास संस्कारों की एक बड़ी ऊंची और मजबूत एक चट्टान हुआ करती थी, गाँव के कुवां का मैला कुचैला पानी पीकर भी सभी निरोगी रहा करते थे, और पालतू पशुओं को भी अत्याधिक स्नेह कियरते थे, गाय, बकरी, भैंस, आदि को हरा चारा खिला कर उनसे दूध दही निकालते थे खुद खाते थे और अपने आस पास के पड़ोसियों को खिलाया करते थे वृज की धरती की एक बात माने तो उस समय एक कहावत बहुत ही प्रचलित थी कि दूध और पूत बेचे नही जाते हैं इसी कहावत को चरितार्थ करने के लिये बृज नही बल्किी पूरे देश के लोग दूध बेंचते नही थे, खाने पीने से बच जाता तो उसे ममिट्टी हांड़ी में पका कर घी निकाल लेते थे और दही को बेंचते थे, पड़ोसी व अपने पालतू पशु को भी दही का सेवन कराते थे।
महिलाएं भी घर को कार्यों मे काफी निपुण हुआ करती थी चक्की का प्रचलन कम होने के कारण घर की सभी औरते कूटने पीसने का कार्य को बहुत ही शान्त मन से किया करती थी और घर के पुरूष भी खेती का कार्य किया करते थे साथ ही साथ अपने बच्चों को भी शिक्षा प्रदान कराने के साथ कार्यों में हाथ बटवाने के लिये प्रेरित किया करते थे उस दौर की सबसे बड़ी शिक्षा संस्कार ही हुआ करती थी सभी नगारिक अपनी मेहनत में अधिक विस्वास किया करते थे और फिजूल खर्ची से बचा करते थे न तो किसी से कुछ मुफ्त लेते थे और नही किसी को कुछ मुफ्त देते थे यहां तक अपनी मेहनत को को हूंड नाम से सम्बोधित करते थे और जिसके कार्यों में हूंड के माध्यम से योगदान दिया है तो वह व्यक्ति दूसरे दिन उस व्यक्ति का हूंड अदा करता था सीधे शब्दों में कहा जाये तो काम के बदले काम।
धीरे धीरे समय बीतता गया आधुनिकता भारत के वायु मण्डल में अपनी सुगंध छोंडने लगी जो रसूखदार लोग होते थे वही लोग पहले आधुनिकता की सुगन्ध लेना शुरू करते थे पहले की शादियों को अगर देखा जाये तो जिस शादी में घड़ी, साइकिल, बाजा, दहेज में प्राप्त होता था तो वह शादी बहुत ही ऊंची मानी जाती थी और आस पास के क्षेत्र में कुछ दिनों तक चर्चा का विषय बनी रहती थी, फिर समय ने थोड़ा रफ्तार बढ़ा दी तब तक देश में टी0वी0 ने अपना रूख गांव की ओर कर दिया था चार छ गांव में से किसी एक गांव में किसी न किसी के यहां टी0वी0 आ जाती थी तो उस समय आस पास के गांव वाले दूसरे गांव को टी0वी0 देखने के लिये उसके घर जाया करते थे ओ भी अपने घर परिवार वालों से छुपते छुपाते क्योंकि उन दिनों टी0वी0 देखने के नाम पर बाप दादा अपने जूते और छड़ी से शूटिंग शुरू कर दिया करते थे टी0वी0 उस समय किसी को नागवार गुरजरती थी तो किसी को भाने भी लगी थी इसी कारण धीरे धीरे प्रत्येक गांव में एक एक सादी टी0वी0 होने लगी थी जिसकी गवाही घर पर लगे एल्मुनियम के एंटीने देते थे, यह एंटीना उस समय सम्पन्नता का प्रतीक भी माना जाता था अभी तक लोग सरकार पर कम प्रकृति और संस्कार पर ही निर्भर थे जितने में जो भी थे सभी सुखी और संतुष्ट थे।
अभी तक भारत वर्ष की धरती से कुछ गया नही था सब कुछ पूराना ही था किन्तु टी0वी0 और सिनेमा ने समाज में थोड़ा परिवर्तन अवष्य कर दिया था। भारत की आबादी के साथ- साथ भारतवासियों की आवश्यकताएं भी बढ़ने लगी तो आवश्यकता ही आविस्कार की जननी के नारा को सिद्ध करते हुये नये- नये आविस्कार होने लगे। लोगों की जरूरतें इस कदर बढ़ने लगी की वह अपनी जरूरतों को पूरी करने के लिये आस पास के लोगों से कर्ज का भी सहारा लेने लगा फिर यह सिलसिला सबसे अधिक ग्रामींण क्षेत्र में इस तरह से हावी हुआ की एक कर्ज को मिटाने के लिये ग्रामींण लोग दूसरा कर्ज लेने लगे, इसी बीच सरकारों ने भी ग्रामींण परिवेष में रहने वालों के लिये भी योजनाओं की झड़ी लगाने लगी क्योंकि अब सब कुछ सरकार के हिसाब से ही चल रहा था अब देश का नागरिक सरकारी योजनाओं पर निर्भर होने लगा अपने पूर्वजों के हूंड वाली पद्यति को भूल चुका था, कुदरत से भी बिमुख हो चुका था, अब सारा दारोमदार पैसे पर निर्भर होने लगा था, अब लोगों के अन्दर पैसे कमाने की भवना काफी प्रबल हो चुकी थी, कुछ लोग औपचारिक तरीके से धनार्जन करते थे तो कुछ लोग अनौपचारिक तरीके से धनार्जन करने लगे, इसी बीच लोगों के ईमान में भी काफी गिरावट देखने को मिलने लगी औपचारिक तरीके से लिये गये धन को वह न दे पाने में असमर्थ होने लगा तो वह माफी व मुफ्त की ओर अधिक आकर्षित होने लगा।
वर्तमान दौर का प्रत्येक नागरिक अपने पूर्वजों के संस्कारों और दिलों के भावों को पूरी तरह से भूल चुका है आवश्यकताएं इतनी अधिक हो चुकी हैं कि अपनी मेहनत के बल बूते से पूरी करना पाना असंभव सा लगने लगा है, हमको भी अब इन सबको अपने इसारे पर चलाना है इस लिये हम भी इनकी आवश्यकताओं को पूरी करने के लिये कर्ज व मुफ्त में रोजमर्रा की जरूरतें देनें व पूरी करने लगे हैं तो अब लोग हम पर ही निर्भर होने लगे हैं और सब कुछ मुफ्त में ही चाहने लगे हैं हम यह चाहते भी थे क्योकि इन सभी को हम समय समय पर इस्तेमाल भी कर लेते हैं, देखना यही चाहत इनकी एक न एक दिन अपने देश में कोई बड़ा खेल दिखायेगी अगर मुफ्त की चाहत व राहत पर लगाम न लागयी गयी तो हम एक दिन श्रीलंका को पीछे छोंड़ देंगे, मुफ्त देने की बात छोंड़ो अपनी सारी पूंजी दांव पे लगाने के बाद भी कुछ हांसिल नहीं होगा
राजकुमार तिवारी “राज”