गज़ल
बहुत से लोग दुनिया में अजब सा काम करते हैं,
मुहब्बत ज़िंदगी से है मगर जीने से डरते हैं
रवायत इश्क की ना जाने कैसी है कि दीवाने,
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे मरते हैं
कलाम उनका ज़माने तक ज़माना याद रखता है,
गज़ल में अपनी जो खून-ए-जिगर से रंग भरते हैं
किनारे पर रूके तो हाथ में बस रेत आएगी,
खज़ाने उनको मिलते हैं जो दरिया में उतरते हैं
नामुमकिन नहीं है कुछ भी थोड़ा हौसला रखो,
अगर हो आग सीने में तो पत्थर भी पिघलते हैं
लज़्ज़त-ए-सफर बढ़ती है राहों की मुश्किलों से,
जो छालों से नहीं डरते वो मंज़िल पर पहुंचते हैं
— भरत मल्होत्रा