जिसको बेहद सच्चा समझा उसमे बेहद छल
जिसको बेहद सच्चा समझा उसमे बेहद छल निकला
लोगों के चहरे पढ़ने में में कितना असफल निकला
दौरे ग़र्दिश में जब असली किरदारों से भेंट हुई
यारी में कम हर कोई ऐयारी में अव्वल निकला
दौलत से इंसानी कद का कद तय करती दुनिया में
वो ही पंड़ित वो ही ज्ञानी जिसका सिक्का चल निकला
जिनमें करने की चाहत है वे कब वक्त गँवाते हैं
और निकम्मे लोगों का कल कल करते हर कल निकला
जब जब अंतस की तृष्णा को प्रेमामृत की चाह हुई
रिश्तों के घट में से केवल धोखा और गरल निकला
चहरों के औरा से आगे हम जब दिल तक पहुँचे तो
हर हँसते चहरे का सीना चाक ज़िगर घायल निकला
जिसने ख़ुद को जैसा पेश किया बस मान लिया तूने
बंसल तू तो सचमुच में नादां निकला पागल निकला
सतीश बंसल
१५.०४.२०२२