कविता

मिलन की लक्ष्मणरेखा

मन में तीव्र उत्कंठा है
उत्सुकता है,चाह है
अजीब सा अहसास
उछलकूद कर रहा है।
पर उससे भी ज्यादा
डर भी लग रहा है,
क्या उचित होगा मिलना
उहापोह भी है,
क्योंकि दुनिया की नजरों में
हमारा कोई रिश्ता जो नहीं है।
पर हमारे मन के भावों में
रिश्तों का ऊंचा मुकाम है
जिसमें प्यार है, विश्वास
समर्पण है, सद्भाव भी है।
निश्छल पवित्रता संग
मां बेटे सा लगाव है
भाई बहन का दुलार है
बाप बेटी का खूबसूरत संस्कार,
लाड़,नाज नखरे भी हैं,
दोस्तों सी उदंडता भी है
वेदना, संवेदना, पीड़ा भी है
जीवन की गहरी विवेचना भी है।
बस नहीं है तो उच्श्रृंखलता
न ही मर्यादा लांघने की ललक
क्योंकि रिश्तों का अदृश्य बंधन
हमें इजाजत नहीं देता,
मिलने की चाह बहुत है
पर चाह को परवान नहीं चढ़ने देता।
दुहाई देने लगता है
उसके सम्मान और मर्यादा की
उसके जीवन में
आ सकने वाले भूचाल की।
इसलिए मौन हूं
खुद से सवाल करता हूं
तो निरुत्तर रह जाता हूं,
बस! उसके दामन पर
कहीं दाग न लग जाए
इसलिए मिलन की चाह रखकर भी
एकदम खामोश हूं,
वो रिश्तों की दुहाई देती
निर्मल पवित्रता का विश्वास देती,
मैं मर्यादाओं की बात करता
उसकी चाहतों का कत्ल करता
उसका गुनहगार हूं
मगर बहुत लाचार हूं।
क्योंकि कई रिश्ते भी
कभी कभी असहाय बना देते हैं,
किसी को खुशियां देते
तो किसी से छीन भी लेते हैं
मिलन की चाह से पहले ही
दीवार खड़ी कर देते हैं,
रिश्तों को मजबूत तो करते हैं
परंतु चाहतों पर बंदिशों की
अदृश्य लक्ष्मण रेखा भी खींच देते हैं।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921